पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७०

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१५६ अभिधर्मकोश [२००] वह असंज्ञि कहलाते हैं क्योंकि दीर्घ काल तक उसकी संज्ञा स्थगित रहती है। जब इस दीर्घ काल के पश्चात् वह पुनः संज्ञा का उत्पाद करते हैं तो उनकी च्युति होती है । जैसा सूत्र में कहा है कि “जब वह पुनः संज्ञा का उत्पाद करते हैं तब उस सत्व के सदृश जो निद्रा से जगता है उनकी च्युति होती है।" असंज्ञि सत्वों के लोक से च्युत हो वह अवश्य कामधातु पुनः उपपन्न होते हैं, अन्यत्र नहीं । (१) वास्तव में जिस के योग से यह सत्व असंज्ञियों में उपपन्न होते हैं उस असंज्ञिसमा- पत्ति (२.४२ ए) के संस्कार का परिक्षय होता है । असंज्ञि सत्वों में निवास करते हुए वह अपूर्व का उपचय नहीं करते और असंज्ञि-समापत्ति का पुनः अभ्यास करने के अयोग्य होते हैं : अतः उनकी च्युति होती है यथा क्षीणवेग बाण पृथिवी पर पतित होते हैं।२ (२) दूसरे पक्ष में असंज्ञि सत्वों में उपपन्न सत्व 'काम धातु में विपच्यमान' और 'अपर पर्याय वेदनीय' (४.५० बी) कर्म से अवश्य समन्वागत होते हैं । इसी प्रकार उत्तरकुरु (३.९० सी-डी) में जो सत्व उपपन्न होते हैं वह उत्तरकुरु-भव के अनन्तर की देवगति में विपच्यमान कर्म से अवश्य समन्वागत होते मूलशास्त्र कहता है : "दो समापत्ति क्या है ?--असंज्ञि-समापत्ति, निरोध-समापत्ति ।"२ असंज्ञि-समापत्ति क्या है ? यथा आसंज्ञिक एक धर्म है जो चित्त और चैत्तों का निरोध करता है । तथासंज्ञिसमापत्तिानेऽन्त्ये निःसृतीच्छया । शुभोपपद्यवेधैव नार्यस्यैकाध्विकाप्यते ॥४२॥ ४२ ए. उसी प्रकार असंझि-समापत्ति है । [२०१] असंशि-समापत्ति असंज्ञि सत्वों की समापत्ति है (असंज्ञिनां समापत्तिः), अथवा वह समापत्ति है जिसमें संज्ञा नहीं होती । 'तथा' शब्द से यह प्रदर्शित होता है कि यह समापत्ति आसंज्ञिक की तरह चित्त-चैत्तों का निरोध करती है । यह किस भूमि की है ? २ १ समापत्ति शब्द के अर्थ पर पृ. २१३ देखिये । पूरा नाम संज्ञावेदितनिरोधसभापत्ति है, पृ. २११ देखिये । प्रकरण (१४ बी ५): असंज्ञि-समापत्ति निःसरणमनसिकारपूर्वक चित्त-चत्त का निरोध है। शुभकृत्स्नों के दलेशों से, ऊर्ध्व क्लेशों से नहीं, विनिर्मुक्त पुद्गल इसका लाभ करता है। निरोधसमापत्ति शान्तविहार संज्ञापूर्वक चित्त-चत्तों का निरोध है और इसका लाभ वह पुद्गल करता है जो आकिंचन्यायतन के क्लेशों से विनिर्मुक्त है। चस्कन्धक में वसुबन्यु ने इन लक्षणों से सहायता ली है। तथा [असंज्ञिसमापत्तिर] ध्यानेऽन्त्ये [मोक्षमिच्छता] । [शुभो] पपघवेद्येव (नायर् ) एकाधिकाप्यते ॥ 3