पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९१

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १७७ कहा : "आयुष्मन् ! तुम्हारी जान में वेदना उत्पन्न होती हैं, अवस्थान करती हैं, क्षय-अस्त को प्राप्त होती हैं । [२२८] अतः हम कहते हैं : "जाति प्रवाह का आदि है, व्यय उसका उच्छेद है, स्थिति प्रवाह ही है, स्थित्यन्यथात्व पूपिर विशेष है ।" 1 "उत्पाद अभूत्वा भाव है, स्थिति प्रवन्ध है, अनित्यता प्रवन्ध का उच्छेद है, जरा उसको पूर्वा- पर विशिष्टता है।" "क्या आपका कहना है कि क्षणिक धर्म का व्यय स्थिति के बिना [अनन्तर] होता है ? किन्तु [यदि धर्म क्षणिक है तो इसका स्वयं व्यय होता है : आपकी क्षणिक धर्म की स्थिति-परि- कल्पना वृथा है।" [२२९] अतः जव सूत्र स्थिति का उल्लेख करता है तो उसका अभिप्राय प्रवाह से होता है । १ १ संयुक्त, ११, १४--प्रवाहगता हि वेदनास्तस्य विदिता एवोत्पचन्ते। विदिता अवतिष्ठन्ते । विदिता अस्तं परिक्षयं पर्यादानं गच्छन्ति । न क्षणगताः क्षणस्य दुरवधारत्वात् [व्या १७५.६])। तिब्बती भाषान्तर: कुलपुत्र नन्द (अंगुत्तर ४.१६६ से तुलना कीजिये) संयुत्त, ५.१८० से तुलना कीजियेनझिम, ३.२५ (जहाँ भगवत् शारिपुत्र के संवन्ध में वही कहते हैं जो वह यहाँ नन्द के लिये कहते हैं): धम्मा विदिता उपन्जन्ति वित्तिा उपहन्ति विदिता अन्भत्थं गच्छन्ति । प्रथम परिच्छेद-संघभव, ४०७. २. १२, तृतीय-४०७.३,९; ६३२,३,१७ भी देखिये। जातिरादिः प्रवाहस्य (उच्छेदो व्ययः] स्थितिस्तु सः । [स्थित्यत्ययात्व] तस्यैव पूर्वापर विशिष्टता] ॥ अभूत्वा भाव उत्पादः प्रवन्धः स्थितिरनित्यता । तदुच्छेदो [जरा तस्य पूर्वापर विशिष्टता ॥ [च्या १७५.११ इत्यादि] क्षणिकस्य हि धर्मस्य [स्थिति विना भवेद् व्ययः । स च व्यति [स्वयं] तस्माद् वृथा तत्परिकल्पना ॥ व्या १७५.१९] मज्झिन, ३.२५ में यह वाक्य है--एवं किल ये धम्मा अहुत्वा सम्भोन्ति। यह सौत्रान्तिकवाद है-अभूत्वा भाव उत्पादः (पृ. २२९: पं० १८), मिलिन्द, पृ.५१ में यही वाक्य इस प्रकार है-अहुत्वा संभोति; सर्वास्तिवादी और मिलिन्द, पृ.५२ इसका विरोध करते हैं : नत्यि कैचि सखारा ये अभवन्ता जायन्ति--नागसेन विभज्यवादिन है, पृ.५० । २ यदि किसी का यह मत है कि "यह स्थितिसद्भाव के कारण है कि उत्पन्न धर्म का एक क्षण अविनाश होता है, यदि स्थिति न हो तो यह एक क्षण भी न हो" तो ऐसा नहीं है क्योंकि हेतुप्रत्ययपूर्वक क्षण का अस्तित्व है। [व्या १७५.२९] यदि किसी का यह मत है कि "हेतु प्रत्यय से उत्पद्यमान वर्म का स्थिति उपग्रहण करती है (उपगृह्णाति)" तो हम पूछते हैं कि "यदि स्थिति उपग्रहण न करे तो क्या होगा ?"- "धर्म को आत्मसत्ता न होगो (आत्मसता धर्मस्य न भवेत्)"--"अतः कहिये कि स्विति जनिका है, स्यापिका नहीं है।" यदि यह कहो कि "स्थिति सन्तान की अवस्थापना करती है (अवस्थापयति)" तो हेतु. प्रत्यय के लिये स्थिति की आत्या सुरक्षित रखना चाहिये। १२