पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२

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प्रथम कोशस्थान : धातुनिर्देश ७ धर्माणां प्रविचयमन्तरेण नास्ति क्लेशानां यत उपशान्तयेऽभ्युपायः। क्लेशश्च भ्रमति भवार्णवेऽत्र लोक स्तद्धेतोरत उदितः किलष शास्त्रा ॥३॥ अभिधर्म के उपदेश का क्या प्रयोजन है ? किसने इसका प्रथम उपदेश किया? इन दो प्रश्नों के उत्तर से हम जानेंगे कि अभिधर्मकोश के प्रणयन में आचार्य क्यों आदर प्रदर्शित करते हैं। ३. यतः धर्म-प्रविचय के विना क्लेशों की शान्ति का कोई उपाय नहीं है और क्लेशों के कारण ही लोक इस भवार्गव में भ्रमित होता है अतएव कहते हैं कि इस प्रविचय के लिए शास्ता ने अभिधर्म का उपदेश किया है। धर्मों के प्रविषय के विना क्लेशों के (५. १) उपशम का दूसरा कोई उपाय नहीं है और क्लेश ही लोक को इस संसार रूपी महार्णव में भ्रमित करते हैं । अतएव वैभाषिक कहते हैं कि धर्मों के प्रविषय के लिए शास्ता बुद्ध भगवत् ने अभिधर्म का उपदेश किया है क्योंकि अभिधर्म के उपदेश के विना शिष्य धर्मों का प्रविचय करने में अशक्त हैं। [६] वैभाषिक कहते हैं कि भगवत् ने अभिधर्म का प्रवचन सदा प्रकीर्ण रूप से किया है और जिस प्रकार स्थविर धर्मत्रात ने प्रवचन में प्रकीर्ण उदानों को उदानवर्ग में वर्गीकृत किया है उसी प्रकार आर्य कात्यायनीपुत्र प्रभृति स्थविरों ने सात अभिधर्मो में अभिधर्म को संगृहीत कर स्थापित किया है।' २ व्याख्या १०.२६] धर्माणां प्रविचयमन्तरेण नास्ति क्लेशानां यत उपशान्तयेऽभ्युपायः। [व्याख्या १०.३० में द्वितीय चरणांश यों है-नास्ति श्लेशोपशमाभ्युपायः।] क्लेशश्च भ्रपति भवार्णवेऽन्न लोकः [व्याख्या ११.२] (तद्धतोरत उदितः किलष शास्त्रा) ॥ प्रथम दो पंक्तियां नामसंगीति, १३० को दोका (अमृतकणिका) में 'यदुपशान्तये इस पाठ के साथ उद्धृत हैं। तृतीय पंक्ति व्याख्या में (११.२) उद्धृत है। चतुर्थ व्याख्या के अनुसार व्यवस्थित की गई है। १३ 'किल परमतद्योतने' । 'किल' शब्द दिखाता है कि वसुबन्धु यहां वैभाषिकों का मत देते हैं और यह उनका मत नहीं है। सौत्रान्तिक और वसुबन्धु अनुसार अभिधर्म बुद्धवचन नहीं हैं। हम भूमिका में अभिधर्म ग्रन्थों को प्रामाणिकता के प्रश्न का विचार करेंगे। सूत्र और अभिधर्म का विरोध, यया ३.१०४, ७.२२. १ उदानवर्ग (तिब्बती सूत्र, २६) के तिब्बती भाषान्तर का अनुवाद उब्ल्यू० राकहिल (लन्दन १८८३) ने किया है और एच० बेक (बलिन १९११) ने उसे प्रकाशित किया है। मूल का एक अच्छा भाग तुकिस्तान में पाया गया है (जे० आर० ए० एस० १९१२ १.३५५. ३७७; जे० एस० १९१२, १.३११ में पालि पाठ को इससे समानता दिखाई गई है) एस० लेवी, जे० एस० १९१२, २.२१५-२२२. २ जे तकाकुसु--आन दि अभिधर्म लिटरेचर आफ दि सर्वास्तिवादिन्स, जे० पी० टी० एस०, १९०५, पृ.७५,