पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३१

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२१८ अभिधर्मकोश [२८५] सूत्र वचन है : "इस दुःख का अशेष प्रहाण, व्यन्तिभाव (या वान्तीभाव), क्षय, विराग, निरोध, व्युपशम, अस्तंगम, अन्य दुःख की अप्रतिसन्धि, अनुपादान, अप्रादुर्भाव----यह शान्त है, प्रणीत है, अर्थात् सर्वोपधि का प्रतिनिःसर्ग, तृष्णाक्षय, विराग, निरोध, निर्वाण है।" सर्वास्तिवादिन् --जब सूत्र कहता है कि निर्वाण अपूर्व दुःख का अप्रादुर्भाव है तो सूत्र का अभिप्राय यह कहने का है कि निर्वाण में दुःख का प्रादुर्भाव नहीं है । सौत्रान्तिक---मैं नहीं देखता कि ' निर्वाणे' का अधिकरण कैसे यह सिद्ध करता है कि निर्वाण द्रव्य है । 'अस्मिन् के अधिकरण का आप क्या अर्थ लेते हैं ? यदि आप 'अस्मिन् सति' कहना चाहते हैं अर्थात् निर्वाण के होते दुःख का प्रादुर्भाव नहीं होता', तो दुःख का कभी प्रादुर्भाव नहीं होता क्योंकि निर्वाण नित्य है। यदि आप 'अस्मिन् प्राप्ते' कहना चाहते हैं अर्यात् 'निर्वाण की प्राप्ति पर' तो आपको मानना होगा कि जिस मार्ग के योग से आप निर्वाण की प्राप्ति की [२८६] परिकल्पना करते है उसके होने पर या उसके प्राप्त होने पर अनागत दुःख का अप्रादुर्भाव होता है। ९. अतः सूत्र का दृष्टांत सुष्टु है : "यथा अचि का निर्वाण तथा उनके चित्त का विमोक्ष ।"२ ४ १ महावस्तु, २.२८५ में अन्तिम भाग का एक दुसरा पाठ है : एतं शान्त एतं प्रणीत एतं यथावद् एक अविपरीतं यमिदं सर्वोपधिप्रतिनिःसर्गो सर्वसंस्कारक्षमयो पोपच्छेशे तृष्णाक्षयो निरागो निरोधो निर्वाणम् । यही महावस्तु, ३.२०० में है। महावाम, तृतीय सत्य, १, ६, २१. व्याख्या में व्या २२१.१७] सूत्र के प्रथम शब्द 'यत् खल्बम [दुःखल्प . . .] और दो आख्याएँ 'प्रहाण' और 'मत्रादुर्भात उद्धृत हैं। अंगुतर, १.१०० : परिक्ला पहाण सा क्य विराग निरोध चादा पटिनिस्तामा ५.४२१ : अक्षेपनिराग' विरोध चाग पटिनिस्सग मुत्ति अनालय; संयुत्त, १.१३६ : सब संसारसमथ . . . . ; इसिवुता, ५१ : उपधि- प्पटिनिस्सग--मज्झिन, १.४९७ के संस्कृत रूपान्तर देलिये, पिशेल, मामेत् आफ. इडिकुस्तरो, पृ.८ (व्यन्तिभाव) और अवदानशतक, २. १८७ (दान्तीमाब)। दूसरे शब्दों में अप्रादुर्भाव = मास्पिन प्रादुर्भावः [वया २२१.१९] । यह अधिकरणलाधन हैं। सौत्रान्तिक के अनुसार अप्रादुर्भाव अप्रादुर्भूति [व्या २२१.२०] (भानसाधन) । सर्वास्तिवादिन का व्याख्यान मध्यमवृत्ति, पृ.५२५ में उद्धृत है। वहाँ यह वाद उस दर्शन का बताया गया है जो निर्वाण को सेतु के तुल्य एकनाव, एक पदार्थ मानता है और जो क्लेश, कर्म और जन्म की प्रवृत्ति का निरोध करता है । वास्तव में मार्ग दुःखसमुदय का निरोध करता है। मार्ग के अतिरिक्त निरोध' नामक एक व्रव्य की परिकल्पना करने से क्या लाभ है ? २ दोघ, २.१५७; संयुत्त, १.१५९, थेरगाथा, ९०६ । पज्जोलस्सेष निन्यानं विमोखो चेतसो अहू । संस्कृत पाठान्तर (यवदानातक, ९९, मध्यमवृत्ति, ५२० डुल्ना, नैजियो ११८, जे० पूजी लस्को; जे० ए० एस० १९१८, २.४९०, ५०९) : प्रद्योतस्येव निर्वाणम् विमोक्षस्तस्य चेतसः । निस्पधिशेपनिर्वाण काल में यह होता है- 'भवनिरोधो निव्यान' यह लक्षण अंगुत्तर, ५.९' संयुत्त, २.११६ इत्यादि में है। १