पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३०

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द्वितीय कोशस्थान : फल -२१७ जैसा हम अतीत और अनागत के विचार में (५.२५) निर्देश करेंगे हम इसमें कोई अयुक्तता नहीं देखते। ५. सर्वास्तिवादी प्रश्न करता है कि इसमें क्या दोप है यदि असंस्कृत का द्रव्यतः भाव हो। आप इसमें क्या गुण देखते हैं ? यह गुण कि वैभाषिक पक्ष पालित होता है । यदि देवों का यह विनिश्चय हो कि यह संभव है तो वह इस पक्ष का पालन करें ! किन्तु असंस्कृत के सद्भाव की प्रतिज्ञा करना एक अभूत वस्तु की परिकल्पना करना है । वास्तव में असंस्कृत का ज्ञान रूपवेदनादिवत् प्रत्यक्षतः नहीं होता, चक्षुरादिवत् उसके कर्म से अनुमानतः भी नहीं होता। ६. पुनः यदि निरोव एक द्रव्यसत् है तो आप 'दुःखस्य निरोधः' में-दुःख का निरोव, क्लेश का क्षर, क्लेशालम्बन का क्षय-पष्ठी को कैसे युक्त सिद्ध करते हैं ?--हमारे सिद्धांत में यह गमित है कि वस्तु का विनाश वस्तु का अभावमात्र है। 'दुःख का निरोध' इसका अर्थ यह है कि [२८४] 'दुःख का अब और सद्भाव नहीं होगा'। किन्तु वस्तु अर्थात् क्लेश और निरोव-द्रव्य के वोच हेतुफलभाव, फलहेतुभाव, अवयव-अवयविसंबन्ध आदि जो षष्ठोबचन को युक्त सिद्ध करते हैं असंभव हैं । सर्वास्तिवादिन उत्तर देता है कि हमारी प्रतिज्ञा है कि निरोप एक द्रव्यसत् है । किन्तु प्राप्ति- नियम है । हम कह सकते हैं कि निरोध का संबन्ध अनुक वस्तु (रागादि वस्तु के निरोब) से होता है क्योंकि जिस काल में अमुक अमुक वस्तु की प्राप्ति का छेद होता है उस काल में निरोव की प्राप्ति (२.३७ वी) का ग्रहण होता है । क्रिन्तु हमारा उत्तर होगा कि निरोध की प्राप्ति के नियम में क्या हेतु है ? ७. सर्वास्तिवादिन्-सूत्र दृष्टधर्मनिर्वाणप्राप्त भिक्षु का उल्लेख करता है । यदि निर्वाण अभाव है तो अभाव की प्राप्ति कैसे होती है ? सौत्रान्तिक-प्रतिपक्ष के लाभ से अर्थात् आर्यमार्ग के लाभ से भिक्षु ने क्लेश और पुनर्भव के उत्पाद के अत्यंत विरुद्ध आत्रय का लाभ किया है। इसीलिए सूत्र कहता है कि उसने निर्वाण प्राप्त किया है। ८. पूनः एक सूत्र (संयुक्त, १३, ५) है जो यह सिद्ध करता है कि निर्वाण अभावमात्र है। । २ । वस्तुनो (= रागादिवस्तुनो) [निरोवस्य च] हेतुफलादिभावासंभवात् । [व्या २२१. भाष्य : तस्य तहि प्राप्तिनियमे [को हेतुः] [व्या २२१.९] ---व्याख्या : तस्य निरोषस्य योऽयं प्राप्लेनियमः । अस्यैव निरोवस्य प्राप्त प्रत्येति ॥ तस्मिन् प्राप्तिनियमे को हेतुः। न हि निरोवस्य प्राप्त्या सार्थ कश्चित् संबन्धोऽस्ति हेतुफलादिभावासंभवात् । ३ वृष्टधर्मनिर्वाणप्राप्त [व्या २२१.१२] अर्थात् सोपविशेषनिर्वाणस्य ।