पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२५१

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२३८ अभिधर्मकोश क्रिया की प्रतिज्ञा के परिहार के लिये ईश्वरवादी कहेगा कि आदिसर्ग ईश्वरहेतुक है : किन्तु आदिसर्ग का केवल ईश्वर एक कारण है, वह अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करता । अतः ईश्वरवत् उसके भी अनादित्व का प्रसंग होगा। ईश्वरवादी इसका प्रतिषेध करता है। जिस प्रकार हमने ईश्वरवाद का निराकरण किया है उसी प्रकार पुरुष, प्रधानादि में भी यथायोग योजना करनी चाहिये । अतः कोई धर्म एक कारण से उत्पन्न नहीं होता। दुःख का विषय है कि लोगों की बुद्धि असंस्कृत है । पशु और पक्षियों के समान पुद्गल यथार्थ में दया के पात्र हैं। वह एक भव से दूसरे भव में संसरण करते हैं और विविध कर्म उचित करते हैं। वह इन कर्मो के फल का आस्वादन करते हैं और उनकी यह विप्रतिपत्ति होती है कि ईश्वर इस फल का कारण है। - इस मिथ्या परिकल्पना का अन्त करने के लिये हमको सत्य का निर्देश करना चाहिये । हमने देखा है (२.६४ सी)कि रूपी धर्मों की उत्पत्ति दो प्रत्ययवश होती है-हेतुप्रत्यय, अधिपतिप्रत्यय । इतना विशेष कहना है और देखना है कि भूत-महाभूत और उपादायरूप या भौतिक कैसे परस्पर-हेतु-प्रत्यय होते हैं । विधा भूतानि तद्धेतुभौतिकस्य तु पञ्चधा । त्रिधा भौतिकमन्योऽन्यं भूतानामेकधैव तत् ॥६५॥ ६५ ए. भूत भूतों के दो प्रकार से हेतु हैं।' पृथिवीधातु आदि चारभूत भूतचतुष्क के सभागहेतु और सहभूहेतु हैं। [३१४] ६५ बी. और भौतिकों के ५ प्रकार से । चार भूत रूप-रसादि भौतिकों के ५ प्रकार से हेतु हैं-जननहेतु, निश्रयहेतु, प्रतिष्ठाहेतु, उपस्तम्भहेतु, उपबृहणहेतु । जननहेतु, क्योंकि भौतिक भूतों से उत्पन्न होते हैं यथा शिशु अपने माता-पिता से उत्पन्न होता है । १ २ ४ अकृतबुद्धयः = परमार्थशास्त्ररसंस्कृतबुद्धयः । ध्या २३९. २६] विपाक और पुरुषकारफल । शुमान्-चाङ यह अधिक है। द्विधा भूतानि तद्धेतुः-भूतों पर १.१२, २.२२ देखिये । व्या २३९, २८] [भौतिकानां तु पञ्चधा] । शुभआन-चाडा में इतना अधिक है कि यह पाँच हेतु कारणहेतु के प्रकार हैं। १.११ पर व्याख्या देखिये जहाँ आश्रय-संगृहीत भूत और अविज्ञप्तिभौतिक के कार्य- कारणसंबन्ध का निर्देश है। यह लक्षण विभाषा, १२७, ६ के अनुसार हैं।-संघभन, ११० ए, अन्य लक्षण और अन्य उदाहरण देते हैं । २. २७७, २९७, सिद्धि, ४४८ देखिये ।