पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२५३

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३४० अभिधर्मकोश कामधातु में चार प्रकार के चित्त होते हैं : कुशल, अकुशल, निवृताव्याकृत, अनिवृताव्याकृत । दो अर्ध्व-धातुओं में अकुशल को वर्जित कर तीन प्रकार होते हैं। [३१६] २. अनास्रवचित्त-शैक्षचित्त और अशैक्ष या अर्हत् का चित्त । इन १२ चित्तों की उत्पत्ति एक दूसरे के अनन्तर अनियत रूप से नहीं होती है । कामे नव शुभाच्चित्ताच्चित्तान्यष्टभ्य एव तत् । दशभ्योऽकुशल तस्माच्चत्वारि निवृतं तथा ॥६७॥ पञ्चभ्यो निवृतं तस्मात् सप्त चित्तान्यनन्तरम् । रूपे दशकं च शुभान्नवभ्यस्तदनन्तरम् ॥६८॥ अष्टभ्यो निवृतं तस्मात् षट् त्रिभ्यो निवृतं पुनः। तस्मात् षडेघमारूप्ये तस्य नीतिः शुभात्पुनः ॥६९॥ नव चित्तानि तत् षट्कान्निवृतात्सप्त तत्तथा । चतुर्यः शैक्षमस्मात्तु पञ्चाशैक्षं तु पञ्चकात् ॥७०॥ तस्माच्चत्वारि चित्तानि द्वादशैतानि विशतिः । प्रायोगिकोपपत्याप्तं शुभं भित्वा त्रिषु द्विधा ॥७१॥ वियाकर्यापथिकशैल्पस्थानिकनैमितम् । चतुर्धाऽव्याकृतं कामे रूपे शिल्पविजितम् ॥७२॥ ६७-६८ बी. पहले हम कामावचर चित्त का विचार करते हैं। कुशल के अनन्तर ९ चित्त उत्पन्न हो सकते हैं; ८ चित्तों के अनन्तर कुशल उत्पन्न हो सकता है । १० चित्तों के अनन्तर अकुशल उत्पन्न हो सकता है। अकुशल के अनन्तर चार चित्त उत्पन्न हो सकते हैं। यही निवृ- ताव्याकृत के लिये है। अनिवृतान्याकृत ५ चित्त के अनन्तर उत्पन्न हो सकता है; अनिवृताव्या- कृत के अनन्तर सात चित्त उत्पन्न हो सकते हैं।' १. कामावचर कुशल (शुभ) चित्त के अनन्तर ९ चित्त उत्पन्न हो सकते हैं : चार कामावचर चित्त; (५-६) दो रूपावचर चित्त : समापत्तिकाल, में कुशल चित; निवृताव्याकृत चित्त कामधातु में उपपन्न पुद्गल के कुशल मरणचित्त के अनन्तर प्रति- (१-४) देखेंगे अनन्तर (कारिका, ३५-४६) विशति-चित्त का वाद (कोश, २.७१ बी-७२) आता है जो कारिकाओं में चित्त के उत्पत्ति-क्रम के नियमों का निर्देश करता है। जैसा वसुबन्ध केवल भाष्य देखकर सन्तोष कर लेते हैं किन्तु यशोमित्र (पृ० २४५) संग्रह श्लोक देते हैं। कदाचित् यह धर्मत्रात के मूलग्नन्य का एक अंश है। (फामे शुभचित्तान् नवचित्ताभ्यष्टम्य एव तत् । शुभं दशभ्यस्) तस्माच्चत्वारि निवृतं तया ॥ पञ्चभ्योऽनिवृतं सप्त चित्तानि तदनन्तरम्] । यावत्यु, १४.१ से तुलना कोजिये जहाँ परवावी महासांधिक के विरुद्ध यह मत स्थापित कि फुशल अकुशलादि के अनन्तर नहीं होता। करता