पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२६८

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अभिधर्मकोश २० स्थान । ८ नरक (३.५८) : संजीव, कालसूत्र, संधात, रव, महारौरव, तपन, प्रतापन, अवीचि; चार द्वीप (३.५३) : जम्बुद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानीय, उत्तरकुरु पूर्वोक्त ६ देवनिकाय (३.६४); इनके अतिरिक्त प्रेत और तिर्यक् । अतः अवीचि से परनिर्मित- वशवर्तिन् लोक तक २० स्थान होते हैं। भाजनलोक के साथ, जिसका अधरमाग वायुमण्डल (३. ४५) है, यह कामधातु है। ऊर्ध्व सप्तदशस्थानो रूपधातुः पृथक् पृथक् । ध्यानं त्रिभूमिकं तत्र चतुर्थ त्वष्टभूमिकम् ॥२॥ २ ए-बी. ऊर्च, रूपधातु में १७ स्थान हैं। कामधातु से ऊर्ध्व रूपधातु के १७ स्थान हैं। २ वी-डी. ध्यान पृथक् पृथक् त्रिभूमिक हैं। किन्तु चतुर्थ ध्यान अष्टभूमिक है।' चतुर्थ से अन्यत्र प्रत्येक ध्यानलोक विभूमिक है । प्रथम ध्यान-~ब्रह्मकायिक, ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्मन् । द्वितीय ध्यान-परीत्ताभ, अप्रमाणाभ, आभास्वर। तृतीय ध्यान-परीत्तशुभ, अप्रमाणशुभ, शुभकृत्स्न। चतुर्थ ध्यान-अनभ्रक, पुण्यप्रसव, बृहत्फल और पाँच शुद्धावासिक :] अवृह, अतप, सुदृश, सुदर्शन, अकनिष्ठ। यह १७ स्थान रूपधातु के हैं। 7 २ अर्व सप्तवशस्थानो रूपधातुः च्या २५८.२५] मा वृथा व्यानं निभूमिके तत्र चतुर्थ त्वष्टभूमिकम् । [व्या २५४. ३२] व्यापा-टु- मध्य अधिमात्र भेद से प्रत्येक ध्यान त्रिभर्मिक है। इस प्रकार चतुर्थ ध्यान को तीन भूमि अनभ्रक, पुण्यप्रसव, बृहत्फल हैं। किन्तु अधिमात्र चतुर्थ ध्यान का व्यवकिरण अनास्लव ध्यान से हो सकता है (जैसा ६.४३ में व्याख्यात है)। इससे अवह आदि५ स्थानान्तर होते हैं। अतः चतुर्थ ध्यान अष्टभूमिक है। [च्या २५४.३४] यह मज्झिम, ३.१४७ के चार भवूम्पत्तियों का स्मरण दिलाता है : परीसाभ, अप्पमाणाभ, संकिलिकाम, परिसुद्धाभ देव । होवोगिरिन, १०। यह बहिर्देशकों का व्याख्या २५५:२८] या पाश्चात्यों का (विभाषा, ९८, १५) नय है। ये गान्धार के आचार्य है। इस देश में सौत्रान्तिक है, किन्तु जब विभाषा पाश्चात्यों का उल्लेख करती है तो उसका अभिप्राय बहिर्देशक या मान्धार के सर्वास्तिवादियों से होता है। महाव्युत्पत्ति में प्रथम ध्यान के लिये चार आख्याएँ हैं : ब्रह्मकायिक, ब्रह्मपारिषद्य, ब्रह्मा- पुरोहित, महाब्रह्मा। इससे जानी और हाजसन के अनुसार ४ पृथक् लोक हैं। रेमसात और वफ़ (भूमिका, ६०८) ने भिन्न भिन्न स्रोतों का विचार किया है। कोश में पारिषध का उल्लेख नहीं है और ब्रह्मकायिक अधर श्रेणी के हैं। अन्यत्र (३.५ ए आदि) ब्रह्मकायिक प्रथम ध्यान के सब देवों का, ब्रह्मालोक के सब देनों का सामान्य नाम है। पाल्पा--बृहत् कुशलमूल से निर्यात होने के कारण 'ब्रह्मा' । यह कौन है ? यह यह है जो महावया कहलाता है। वह महान् है क्योंकि उसने ध्यानान्तर (८.२३) का लाभ किया है, पयोकि उसका उपपत्ति लाभ दूसरों के पूर्व और च्युति-लाभ दूसरों के पश्चात् (३.५० १५) होता है, क्योंकि इसके प्रमाणादि विशिष्ट है। ब्रह्मकायिक इसलिये कहते हैं क्योंकि महाप्रमा फा काय अर्थात् निवास उनका निवास है (तस्य कायो निवास एषां विद्यते) । ब्रह्मपुरोहित