पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७८

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२६८ अभिधर्मकोश नहीं। 'गति' शब्द का अर्थ है 'जहाँ जाते है। किन्तु अन्तराभव का उत्पाद च्युतिदेश में होता है। [१५] सर्वास्तिवादिन्–आरूप्यधातु के भवों का भी उत्पाद च्युतिदेश में ही होता है। इसलिये वह गतियों में संगृहीत न होंगे।' अतः हम कहते हैं कि अन्तराभव जो दो गतियों के अन्तराल में होने इस से अन्वर्थ संज्ञा को प्राप्त होता है गति नहीं है। यदि यह गति होता तो अन्तराल में न होने से इसकी संज्ञा अन्तराभव की न होती। सर्वास्तिवादिन्-हम मान लेते हैं कि आपने सप्तमवसूत्र से आकृष्ट तर्क का खण्डन किया है किन्तु आप शारिपुत्र के वचन का (पृ. १३) क्या करते हैं ? शारिपुत्र कहते हैं कि 'नारक कर्म' के विपाक के निवृत्त होने पर नारक सत्त्व होता है। वह यह नहीं कहते कि नारक की गति विपाक ही है : यह गति विपाक-अविपाक-स्वभाव है। सूत्र उक्त है कि रूपादि धर्मों से अन्यत्र नारक का अस्तित्व नहीं है । इसका अभिप्राय एक ऐसे आश्रय की सत्ता का प्रतिषेध करना है जो एक गति से गत्यन्तर में संक्रमण करता है। इसका आशय यह प्रतिज्ञा करने का नहीं है कि नारक के स्कन्ध (रूपादि) विपाकमात्र हैं। वैभाषिकों के अनुसार गति एकान्ततः अनिवृताव्याकृत धर्म हैं । वैभाषिकों में कुछ का विचार है कि यह विपाकज धर्म हैं; दूसरों का कहना है कि यह विपाकज और औपचयिक धर्म हैं। इस धातुत्रय में जिसमें पाँच गतियाँ हैं अनुलोमक्रम से नानात्वकायसंज्ञाश्च नानाकार्यकसशिनः। विपर्ययाच्चैककायसंज्ञाश्चारुपिणस्त्रयः॥५॥ विज्ञानस्थितयः सप्त शेषं तत्परिभेदवत् । भवाग्रा संजिसत्त्वाश्च सरवावासा नव स्मृताः ॥६॥ [१६] ५ ए-६ ए. सात विज्ञानस्थितियाँ हैं : १. नानात्वकायसंज्ञ, २. मानाकार्यकसंज्ञी, ३.विपर्यय, ४ एककायसंज, ५. तीन प्रकार के अरूपी सत्त्व ।' ६ १ गच्छन्ति तामिति गितिः] [च्या २६० . १९] आरूप्या न गतिः स्युश्च्युतिदेश एवोत्पादात् । मारूप्यगा हि यत्र च्यवन्ते विहारे वा वृक्षमूले वा यावच्चतुर्या ध्यानभूमौ तत्रैवोत्पधन्ते : "आरूप्यम जहाँ कहीं च्युत होते हैं, चाहे यह विहार हो, वृक्षमूल हो, चतुर्थ ध्यानभूमि हो, उसी स्थान में वह आकाशानन्त्यादि भव में उपपन्न होते हैं।" (ऊपर ३.३ बी) [व्याख्या २६०.२०] अनिवृताच्याकृतधर्म विपाकज या औपचयिक होते हैं (१.३७, २.५७) । संघभद्र द्वितीय आचार्यों का मत स्वीकार करते हैं। २.१० में हमने देखा कि जीवितेन्द्रिय विपाकमात्र है, किन्तु ५ रूपोन्द्रिय, मन-इन्द्रिय और चार वेदना कभी विपाक हैं, कभी नहीं। नानात्वकायसंज्ञाश्च नानाकार्यकसंज्ञिनः। विपर्ययाच्चैककायसंज्ञाश्चारूपिणस्त्रयः॥ विज्ञान- २ १