पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९२

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२८२ अभिधर्मकोश मरणभव अर्थात् मरणकाल के पंचस्कन्ध और उपपत्तिभव अर्थात् उपपत्तिकाल के पंचस्कन्ध के अन्तराल में एक भव--एक 'काय', एक पंचस्कन्ध होता है जो उपपत्ति-देश को जाता है। [३३] यह भव दो गतियों के अन्तराल में होता है। अतः इसे 'अन्तराभव' कहते हैं।' इस भव का उत्पाद होता है। क्यों नहीं कहते कि यह उपपन्न होता है, क्यों नहीं कहते कि इसकी 'उपपत्ति' होती है ?हम कहते हैं कि यह उपपद्यमान है किन्तु यह उपपन्न नहीं है (३.४० सी. देखिये) । वास्तव में नरुक्त विधि से (पद् = गम्, उपपन्न = उपगत) 'पद्' धातु गत्यर्थक है और उपपन्न का अर्थ उपगत है। जव अन्तराभव का (अथवा अन्तराभव-सत्त्व का) आरम्भ होता है तब गम्य देश में अर्थात् उस स्थान में जहाँ कर्मविपाक की अभिव्यक्ति और परिसमाप्ति होती है वह उपगत नहीं होता। अन्य निकायों के अनुसार मरणभव और उपपत्तिभव के बीच विच्छेद होता है, अन्तराभव नहीं होता। यह मत अयुक्त है जैसा कि युक्ति और आगम से सिद्ध होता है। ओहिसन्तानसाधादविच्छिन्नभवोद्भवः। प्रतिविम्वप्रसिद्धत्वादसाम्याच्चानिदर्शनम् ॥११॥ ११ ए-बी . व्रीहि-सन्तान के सदृश होने से विच्छिन्न भव का उद्भव नहीं होता ।' क्षणिक धर्म सन्तानवर्ती हैं। जब वह एक देश से अपेत हो देशान्तर में प्रादुर्भूत होते हैं तब [३४] इसका कारण यह है कि उनका उद्भव अविच्छेदेन अन्तराल-देशों में होता है। जैसे एक २ नरक गमन के लिये प्रेत काय का ग्रहण करता है। सांख्यप्रवचनभाष्य, ३.७ । जे. आर. ए. एस. १८९७, ४६६, जे. एएस . १९०२, २.२९५ में विविध सूचनायें निर्वाण (१९२५), २८; कोथ, बुद्धिस्ट फिलासफी, २०७; सूत्रालंकार, पृ. १५२, मध्यमक- वृत्ति, २८६, ५४४--बार दो पर जाश्के और शरच्चन्द्रटास । और, एक समृद्ध साहित्य]। यह कठिनाई उपस्थित करता है। हमने देखा है कि गति अनिवृताव्याकृत है। उपपत्तिभव एकान्तेन क्लिष्ट है (३.. ३८) । मरणभव भी कभी कुशल और कभी क्लिष्ट होता है। अन्तराभव मरणभव और उपपत्तिभव के अन्तराल में होता है। उसके लिये यह कैसे कह सकते हैं कि यह दो गतियों के अन्तराल में होता है (गत्योरन्तराल) ? उत्तर----मरण और उपपत्ति- भन में अनिवृताध्याकृत निकायसभाग, जोवितेन्द्रिय, जात्यादि तथा-कार्यन्द्रिय (२. ३५) जो गति-स्वभाव हैं विद्यमान होते हैं। [व्याख्या २६६.३१] यत्र ययाक्षि तस्य विपाकस्याभिव्यक्तिः समाप्तिश्च | व्याख्या २६७.७]–४ . ९५ के अनुसार जन्माक्षेपक कर्म (देव, मनुष्यादि) से अभिव्यक्ति होती है। परिपूरक कर्मो से (वर्ष यानादि) परिसमाप्ति होती है । अथवा : वह देश जिसमें कर्म से आक्षिप्त विपाक अर्थात् नामरूप को अभिव्यक्ति होती है और जहां षडायतन की पूर्ति होती है। नहाधिकादि चार निकाय अन्तराभव का अस्तित्व नहीं मानते। मैटीरियल्स आव जे. जि जुस्को में वसुमित्र को समयभेद को टोका देखिये । महीशासकों का भी यही मत है। (साएको) वीहिसन्तानसाधान् अविच्छिन्नभवोद्भवः। व्याख्या २६७.१३] २ ३ ८