पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश पुनःउत्पत्ति की कल्पना में अनवस्था का प्रसंग क्यों न होगा ? क्या आप कहेंगे कि अनागत वस्तु' की उत्पत्ति होती है ? जो अनागत और असत् है उसका इस उत्पत्ति-क्रिया का कर्तृत्व कैसे सिद्ध होता है ? अथवा अकत क क्रिया कैसे सिद्ध होती है ?"-अतः हम क्याकरण को उत्तर देंगे कि धर्म प्रत्ययों के प्रति उसी अवस्था में गमन करता है जिस अवस्था में आपके अनुसार वह उत्पद्यमान होता है। वैयाकरण प्रश्न करता है कि आपके मत में वह धर्म जो उत्पद्यमान होता है किस अवस्था में होता है ?--जो धर्म उत्पद्यमान होता है वह उत्पादाभिमुख अनागत धर्म है। व्या २९५. १३) जो धर्म प्रत्ययों के प्रति गमन करता है वह भी ऐसा ही है। किन्तु शाब्दिकों का कर्ता और क्रिया का व्यवस्थान अनिप्पन्न है ।' उनके लिये कर्ता है जो यहाँ भविता है और क्रिया है जो यहाँ भूति है। भूति का भविता से अन्यत्व नहीं इप्ट है (२, अनुवाद पृ० २३५) 1---अतः “वह उत्पद्यमान है, प्रत्ययों के प्रति गमन कर उसका उत्पाद होता है" इन वाक्यों के व्यवहार में कोई छल नहीं है क्योंकि इनको सांदृत वाक्य समझते हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का अर्थ इस सूत्र में ज्ञापित है "उसके होने पर यह होता है ; उसकी उत्पत्ति से इसकी उत्पत्ति"।" प्रथम वाक्य में 'प्रतीत्य' का अवधारण है , दूसरे में समुत्पाद का । इस प्रक्रिया को श्लोक में कहते हैं : “यदि आप मानते हैं कि यह पूर्व असत् होकर उत्पद्यमान होता है तो उसी प्रकार असत् होकर यह प्रत्ययों के प्रति गमन भी करता है । यदि आप मानते हैं कि पूर्व सत् होकर यह उत्पद्यमान [८०] होता है तो उत्पन्न होकर यह पुनः पुन: उत्पद्यमान होगा। अतः अनिष्ठा का प्रसंग होगा। अथवा हमारा भी यह पक्ष है कि इसकी उत्पत्ति के काल में पूर्व सत्ता है "सह-भाव . ? १ Y अनागत = अलब्धात्मक [च्या २९५.९] २ उत्पादाभिमुखोऽनागत इति। न सर्वोऽनागत उत्पद्यते कि तह पादाभिमुख इत्युत्पित्सुरि- त्यर्थः । व्या २९५.१३]-दो सह-क्रिया-प्रतीत्यक्रिया और समुत्पादकिया। [व्या २९५.२] अनिष्पन्नं चेदं शाब्दिकोयम् (शाब्दिकानाम्) कर्तृ: क्रियायाश्च व्यवस्थानन् । भवितु : (कर्तृ रूपकल्पिताद् अर्थात्) भूते : (क्रियारूपकल्पितायाः) अन्यत्वादर्शनात् । तस्मादच्छ- ..९.पृ०२८१ देखिये। परमार्थ के भावान्तर के अनुसार जो शुभआन्-चार से अधिक विभक्त है : "प्रतीत्य- समुत्पाद के व्याख्यान के रूप में इस सूत्र का उल्लेख करना चाहिये। नीचे असन्नुत्पद्यते यद्वत् प्रत्येत्यपि तयाथ सन् । उत्पन्न उत्पद्यत इत्यनिष्ठा सन् पुरापि वा।। माख्या--असन्नभावोऽलब्वात्मक उत्पद्यते यथा प्रत्येत्यपि तथा । असन् ॥ अथ लब्धात्मक उत्पद्यते..... उत्पन्नोऽपि पुनरुत्पद्यत इत्यनवस्थानादनिका प्राप्नोति [च्या २९९.२०] सांख्य कहते हैं कि सत एवोत्पादो नासतः। वैभाषिक न्य से अनागत का अस्तित्व है, सौत्रान्तिक नय से जनकवर्मबीज का सद्भाव है। अतः हम कहते हैं 'सन् पुरापि वा', पृ.८१ देखिये।