पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२८

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अभिधर्मकोश का अविद्यादि से क्या अभिसम्बन्ध हो सकता है जिससे 'अविद्यादि का प्रतीत्यसमुत्पाद' कहा [७८] जाता है ? पुनः प्रतीत्यसमुत्पाद पदार्थ असंबद्ध हो जाता है । जव प्रति-इत्य-समुत्पाद का अर्थ है 'प्रत्ययं प्राप्य समुद्भवः' [व्या २९४. १८], 'प्रत्यय को प्राप्त कर उत्पत्ति', तब एक धर्म नित्य और प्रतीत्यसमुत्पाद दोनों कैसे हो सकता है ? प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का क्या अर्थ है ? 'प्रति' का अर्थ है प्राप्ति । 'इ' धातु गत्यर्थक है किन्तु उपसर्ग धातु के अर्थ को विपरिणत करता है। इसलिये 'प्रति-इ' का अर्थ 'प्राप्ति है, 'प्रतीत्य' का अर्थ 'प्राप्त कर' है ; 'पद्' धातु सत्तार्थक है ; सम्-उत् उपसर्गपूर्वक इसका अर्थ 'प्रादुर्भाव' है। अतः प्रतीत्यसमुत्पाद प्राप्त होकर प्रादुर्भाव । यह पदार्थ अयुक्त है। वैयाकरण कहता है कि प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द यथार्थ नहीं है।' वास्तव में एक ही कारक की दो क्रियाओं में से पूर्वकालिक क्रिया में क्त्वाविधि होती है स्नात्वा भुक्ते: = स्नान करके वह भोजन करता है। किन्तु आप किसी ऐसे धर्म की कल्पना नहीं कर सकते जिसका उत्पाद के पूर्व अस्तित्व हो और जो पूर्व प्रत्ययों के प्रति जाता है , पश्चात् उत्पन्न होता है। कोई अकर्तृक क्रिया (प्रतिगमन) नहीं होती। इस चोद्य को श्लोक में उपनिवद्ध करते हैं "यदि आप कहें कि अपने उत्पाद के पूर्व यह प्रत्ययों के प्रति गमन करता है तो यह युक्त नहीं है क्योंकि यह अविद्यमान है। यदि आप कहें कि यह प्रतीत्य-क्रिया और समुत्पाद-क्रिया एक साथ करता है तो क्त्वा' प्रत्यय सिद्ध नहीं होता क्योंकि 'क्त्वा' प्रत्यय पूर्वकाल का विधान करता है।" वैयाकरण का आक्षेप निस्सार है। हम उनसे पूछते हैं कि "जो उत्पन्न होता है [७९] वह प्रत्युत्पन्न है या अनागत।" क्या आप कहेंगे कि प्रत्युत्पन्न वस्तु की उत्पत्ति होती है ? यदि यह उत्पन्न नहीं है तो यह प्रत्युत्पन्न कैसे है ? यदि यह उत्पन्न है तो उत्पन्न की सव------ 9 1 पदार्थश्चासंबद्धो भवति। न्या २९४.१८] प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का निर्वचन, बञ्फ़, लोटस, ५३०, भूमिका ६२३; विसुद्धिमग, ५१८, ५२१ ( चारेन, १६८); आउंग विस, कम्डियम, २५९ मध्यमकवृत्ति, थिअरी आव ट्वेल्व काजेज, ४८ न युक्त एष पदार्थः पाणिनि, ३, ४,२१ के अनुसार : समानकर्तृकयोः पूर्वकाले व्या २९४.२५] सौत्रान्तिक मत से धर्म को पूर्वसत्ता नहीं है। [व्या २९४.२६] न चाप्यकर्तृ कास्ति क्रिया व्या २९४.२६] एतद् वैयाकरणचोद्यं श्लोकेनोपनिवघ्नाति आचार्यः। थ्या २९४. २७] यदि पूर्वमुत्पादात् प्रत्येत्यसत्त्वान्न युज्यते । सह चेत् क्त्वा न सिद्धोऽत्र पूर्वकालविधानतः॥ [व्या २९४ . २९] शब्दविन् वैयाकरण व्या २९५.११] वो मत--यह निराकरण सौत्रान्तिक या सर्वास्तिवादिन का है (पूर-कुमांग) 'शाब्दिक =