पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अभिधर्मकोश होता है। यह सस्य है कि रूपधातु में अपकारक शीत का अभाव है किन्तु अनुग्राहक शीत वहाँ होती है। [१९] कम से कम वैभाषिकों का ऐसा मत [हमारे मत में समाधि देवों का अनुग्राहक है, शीत नहीं, व्या० २७. २८] ऐसा होता है कि रूपविज्ञान या चक्षुर्विज्ञान, एक द्रव्य से, रूप के एक प्रकार से, उत्पन्न होता है : जब इस द्रव्य के प्रकार (नीलादि) का व्यवच्छेद होता है। अन्य अवस्थाओं में बहु द्रव्यों से विज्ञान की उत्पत्ति होती है : जब ऐसे व्यवच्छेद का अभाव होता है; उदाहरण के लिए, जब एक सेना या रत्नराशि के बहुवर्ण और संस्थान का समुदाय दूर से देखा जाता है। इसी प्रकार श्रोत्रादि विज्ञान की योजना करनी चाहिए। किन्तु कायविज्ञान अधिक से अधिक पाँच द्रव्यों से अर्थात् महाभूतचतुष्क और श्लक्ष्णत्व, कर्कशत्वादि अन्य स्प्रष्टव्यों में से किसी एक से उत्पन्न होता है । कुछ ही आचार्यो का यह मत है क्योंकि एक दूसरे मत के अनुसार कायविज्ञान ११ स्पष्टव्यों से युगपत् उत्पन्न होता है। आक्षेप-आपके कथन के अनुसार ५ विज्ञानकायों में से प्रत्येक एक सामान्य को आलम्बन बनाता है, यथा चक्षुर्विज्ञान नीललोहितादि को आलम्बन बनाता है। अतः यह प्रसंग होगा कि विज्ञानकायों का विषय 'सामान्य लक्षण' है, न कि, जैसा प्रवचन में उपदिष्ट है, 'स्वलक्षण' वैभाषिक (विभाषा, १३, १२) का उत्तर है कि स्वलक्षण से प्रवचन को द्रव्यों का स्वलक्षण इष्ट नहीं है किन्तु आयतनों का स्वलक्षण इष्ट है (२. ६२ सी)२ [२०] जव कायेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय युगपत् अपने विषय को (१.४३ सी-डी) संप्राप्त होते हैं तो कौन सा विज्ञान पूर्व उत्पन्न होता है ? वह जिसका विषय पटुतर है। किन्तु यदि दो २ को १ विभाषा, १३, ९ के अनुसार। [व्याख्या २८.४] मनोविज्ञान चक्षुर्विज्ञान आदि विज्ञानकाय के आलम्बनों को अभिसमस्त कर (अभिसमस्य) ग्रहण करता है। इसीलिए इसका विषय सामान्य लक्षण व्यवस्थापित होता है। दूसरे शब्दों में इसका विषय विशिष्ट नहीं है। यदि इसी प्रकार कोई कहता है कि नील, पोत, लोहित और अवदात को आलम्बन बनाने वाले चार चक्षुर्विज्ञान के चार आलम्बनों को अभिसमस्त कर (अभिसमस्य) चक्षुर्विज्ञान एक ग्रहण करता है तो हम कहेंगे कि इसका विषय सामान्य लक्षण है क्योंकि रूपायतन के सामान्य लक्षण उसके आलम्बन हैं। इसी प्रकार श्रोत्र-प्राणादि विज्ञानों को भी स्वविषय में योजना करनी चाहिए। किन्तु इसका प्रवचन से विरोध है। उत्तरः जव प्रवचन में उपदिष्ट है कि ५ विज्ञानकायों में से प्रत्येक का विषय एक स्वलक्षण है तव उसका अभिप्राय आयतनों के स्वलक्षण से है अर्थात रूपायतनत्व से, 'चक्षुर्विज्ञान विशेयत्व' से है, शब्दायतनत्व से अथवा 'श्रोत्रविज्ञान-विज्ञेयत्व' आदि से है। प्रवचन को द्रव्यों का स्वलक्षण इष्ट नहीं है अर्थात् 'नीलाकारव' अथवा 'नोलाकारचक्षुर्विज्ञानविज्ञ- पत्त्य' आदि इष्ट नहीं है। यह द्रव्यों के इन स्वलक्षणों की दृष्टि से नहीं है जो पंच विज्ञान फाय 'स्वलक्षणविषय' दूसरे शब्दों में 'स्वालम्बननियत' कहलाते हैं। क्या पट और मल का एक ही फाल में ग्रहण होता है ? ७.१७-व्यस्वलक्षण, आयतनस्वलक्षण, वसुमित्र, स्वास्तिवादी, २८ या वाद।