पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३४

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अभिधर्मकोश पश्चात् नामरूप की वृद्धि से काल पाकर षडिन्द्रिय की उत्पत्ति होती है : यह षडायतन है । पश्चात् विषय-संयोग से विज्ञान की उत्पत्ति और त्रिक (विज्ञान, षडायतन और विषय) संनिपात से स्पर्श जो सुखादिसंवेदनीय है। इससे सुखादिवेदनात्रय । इस वेदनात्रय से त्रिविध तृष्णा : कामतृष्णा या दुःख से अर्दित सत्त्व की कामावचरी सुखा वेदना के लिये तृष्णा; रूपतृष्णा या प्रथम तीन ध्यान की सुखा वेदना और चतुर्थ ध्यान [८६] की अदुःखासुखा वेदना के लिये तृष्णा; आरूप्यतृष्णा। पश्चात् वेदना की तृष्णा से चतुर्विध उपादान : कामोपादान, दृष्टयुपादान, शीलवतोपादान, आत्मवादोपादान । काम पाँच कामगुण (३.३, पृ. ७) हैं। दृष्टियाँ ६२ हैं जैसा ब्रह्म- जालसूत्र में निर्दिष्ट है । शील दीःशील्य (४. १२२ ए) का प्रतिषेध है; व्रत कुक्कुर-गोव्रतादि है' : यथा निर्ग्रन्थ और उनका नग्नभाव, ब्राह्मणों का दण्ड-अजिन, पाशुपतों का जटा-भस्म, परिव्राजकों का त्रिदण्ड और मौण्डच, इत्यादि । इन नियमों का समादान शीलवतोपादान (५.७, १ २ ३ निदेशात् । नाम कतमत् .....व्या २९९.३२] नामरूप के लक्षण और उसके विविध रूप पर थियरी आफ़ ट्वेल्व कालेज देखिये। ए. विज्ञान का यह निर्देश मध्यम, २४, १, मझिम,१.५३ का है। परमार्थ के अनुसार हमको कहना चाहिये : "प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र के विज्ञानविभंग के अनुसार"। इस अर्थ का समर्थन नीचे व्याख्या से होता है (१० ८५, दि० २ देखिये)। वसुबन्धु यहाँ उपादान का सौत्रान्तिक व्याख्यान देते हैं। वैभाषिकवाद, ५.३८--चार उपादानों पर कथावत्थु, १५, २, विभंग, १४५, नेत्तिप्पकरण, ४१, संयुत्त, २. ३, दोघ, २.५८, मझिम, १.६६॥ पञ्च कासगुणा इति । काम्यन्त इति कामाः। गण्यन्त इति गुणाः (व्याख्या 'गुण्यन्त')। कामा एव गुणाः कामगुणाः।....... रूपशब्दगन्धरसस्प्रष्टव्यानि [व्या ३००.४] कुक्कुरगोवतादीनि। आदिशब्देन मृगनतादोनि गृह्यन्ते । निम्रन्यादीनाम् । भादिशब्देन पाण्डरभिक्ष्वादीनां ग्रहणम्। ब्राह्मणानां दण्डाजिनम् । पाशुपतानां जटा. भस्म । परिवाजकानां त्रिदण्ड[] (व्याख्या का पाठ-मौण्डचम्)आदिशब्देन कापालिकादीनां कपालधारणादि गृह्यते। तत्समादानं शीलवतोपादानम् । व्या ३००.७] कुक्कुरादिवस पर मज्झिम, १.३८७, दीघ, ३.६ 'पाण्डरभिक्षु' पण्डरंगपरिबाजकों का स्मरण दिलाता है जो ब्राह्मण और 'ब्राह्मणजातिय पासंड' के साथ बिन्दुसार से अनुग्रह पाते थे, समन्तपासादिका, ४४ श्रीमती रोज डेविड़स थेरगाथा, ९४९ के 'पण्डर [स] गोत' से तुलना करती है। विभाषा,११४,२: दो तीथिक हैं--अचलौणिक (अचेल सेनिय कुक्कुरवतिक, मज्झिम,१. ३८७, नेत्तिप्पकरण, ९९ से तुलना कीजिये और पूरण कोडिक (पुण्ण कोलिययुत्त गोवत्तिक)। यह दो तोथिक एक समय में संथागार में बैठे हुये लोगों के पास प्रश्न करने के लिये जाते है और कहते हैं कि "लोक के जितने कठिन अभ्यास हैं उनका हम दोनों अभ्यास करते हैं। अध्ययन करते हैं और उन्हें सर्वथा निष्पन्न करते हैं। इन अभ्यासों का क्या विपाक है इसे कौन यथाभूत कह सकता है ? ."-विभाषा, ४८,४: शीलवतोपादान द्विविध हूँ, आभ्यन्तरिक और बाह्य। आभ्यन्तर के पुद्गल (बौद्ध) जिनको संमोह है कि स्नान से शुद्धि होती है और बारह धुतंगों के अभ्यासमात्र से पूर्ण विशुद्धि होती है ।