पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५४

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३४४ अभिधर्मकोश चत्वारोऽपिसामन्ते रूपगा एक ऊर्ध्वगः। एको मौले स्वविषयः सर्वेऽष्टादश सालवाः ॥३५॥ ३५ ए-सी. आरूप्य के सामन्तक में चार का आलम्बन रूप है, एक का आलम्वन ऊर्ध्व है। मौल आरूप्य में एक का आलम्बन स्वधातु है।' कारिका के 'अरूपिसामन्त' का अर्थ आकाशानन्त्यायतन सामन्तक है (८.२२)--इस समा- पत्ति में चार उपविचार उत्पन्न होते हैं : चतुर्थ घ्यान के रूप, शब्द, स्प्रष्टव्य और धर्म के प्रति उपेक्षोपविचार । यह उन आचार्यों का मत है जिनका विचार है कि इस समापत्ति का चित्त व्यव- च्छिन्नालम्बन होता है अर्थात् यह चित्त रूप, शब्दादि को पृथक् पृथक् आलम्वन बनाता है। अन्य आचार्यों के मत से यह चित्त परिपिण्डितालम्बन है : यह चतुर्थध्यानभूमिक स्कन्धपंचक को बिना व्यवच्छिन्न किये आलम्बन बनाता है। इन आचार्यों के मत से इस समापत्ति में केवल एक [११३] उपविचार होता है जिसका आलम्बन चतुर्थ ध्यान है। यह संमिश्रालम्बन धर्मोपविचार (ऊपर पृ० १०८) है-इसी समापत्ति में एक धर्मोपविचार है जिसका आलम्बन आरूप्यधातु है। मौल आरूप्य में केवल एक उपविचार, धर्मोपविचार, होता है जिसका आलम्बन आल्प्य- धातु है ! जैसा हम पीछे देखेंगे मौल आरूप्यों का अधर धातु आलम्बन नहीं होता (८. २१) । ३५ डी. सब १८ सालव हैं। कोई अनास्रव उपविचार नहीं है। कामधातूपपन्न सत्त्व जिसने रूपावचर कुशलचित्त के समन्वागम का प्रतिलाभ नहीं किया है [अनागम्य में प्रतिवेध करके, ८. २२; जो इसलिये कामविरक्त और ध्यानसमापन्न नहीं है] १. कामधातुभूमिक १८ उपविचार, २. प्रथम-द्वितीय-ध्यानभूमिक ८ उपविचार (सौमनस्य के चार, उपेक्षा के चार, जिनका आलम्बन रूप, शब्द, स्प्रष्टव्य और धर्म हैं) से समन्वागत है (२.३६ बी) । सौमनस्य और उपेक्षा के उपविचार जिनके आलम्बन कामावचर गन्ध और रस हैं और जो ध्यानों में उत्पादित होते हैं अक्लिष्ट हैं [क्योंकि ध्यानलाभी कामधातु से विरक्त हैं] । अतः यह सत्त्व इन उपविचारों से समन्वागत नहीं है क्योंकि अधरभूमि में उपपन्न केवल ऊर्ध्व- भूमिक क्लिष्ट धर्मो से समन्वागत होता है] | ३. यही कामधातूपपन्न तृतीय-चतुर्थ-ध्यानभूमिक चार [उपेक्षा] उपविचारों से समन्वागत होता है [वही द्रष्टव्य हैं जो २ के लिये हैं] । ४. वह आरूप्याववर एक क्लिष्ट उपविचार (धर्मोपविचार) से समन्वागत होता है। जब यह सत्त्व (अनागम्य में प्रतिवेध कर) रूपावचर कुशलचित्त का लाभी होता [११४] है किन्तु वीतराग नहीं होता तब वह १.कामधातु के सव (१८)उपविचारों से, २.प्रथम- चत्वारोऽरूपिसामन्ते रूपगा एक ऊर्ध्वगः । एको मौले स्वविषयः [च्या ३१३.४] शुआन्-चाड में यह अधिक है : "इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय और चायं आलय की सामन्तक समापत्तियों में।" २ 3 सर्वेऽष्टादश सासवाः॥