पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३४३ i कामे स्वालम्बनाः सर्वेरूपी द्वादशगोचरः। त्रयाणामुत्तरो ध्यानद्वय द्वादश कामगाः ॥३३॥ स्वोऽष्टालम्बनमारूप्यो द्वयोनिद्वये तु षट् । कामः षण्णां चतुर्णा स्व एकस्यालम्बनं परः॥३४॥ ३३ ए-सी. काममें सब मनोपविचार होते हैं। सवका आलम्बन स्वधातु होता है; रूपी धातु १२ का गोचर है ; ऊर्ध्व धातु तीन का गोचर है।' काम में १८ मनोपविचार होते हैं। इन सबका आलम्बन कामघातु है । इनमें से १२मनो- पविचारों का रूपी धातु गोचर है। ६ गन्धरसोपविचार (सौमनस्य, दौर्मनस्य, उपेक्षा) को वर्जित करना चाहिये क्योंकि रूपधातु में गन्ध और रस का अभाव होता है (१ ३० बी)। आरूप्यधातु तीन धर्मोपविचारों का आलम्वन है , शेष १५ का नहीं, क्योंकि आरूप्यधातु में रूपादि का अभाव है (८. ३ सी)। रूपधातु के प्रथम दो ध्यानों को अन्तिम दो ध्यानों से विशिष्ट करना चाहिये। ३३ सी-३४ बी, दो ध्यानों में १२ । कामधातु सवका आलम्बन है, ८ का स्वधातु, २ का आरूप्य। रूपधातु में ६ दौर्मनस्योपविचारों का अभाव है । पहले दो घ्यानों में ६ सौमनस्यो- [११२] पविचार और ६ उपेक्षोपविचार होते हैं। कामधातु इन बारह का आलम्बन है। इनमें से ८ का बालम्बन रूपधातु है: चार गन्धरसोपविचारों को वर्जित करना चाहिये। दो का आलम्बन आरूप्यधातु है: यह सौमनस्य-उपेक्षा धर्मोपविचार हैं। ३४ वी-डी. किन्तु अन्य दो ध्यानों में ६ । काम ६ का आलम्बन है; स्वधातु चार का; उत्तर धातु एक का। अन्तिम दो ध्यानों में दौमनस्य-सौमनस्य उपविचारों का अभाव है। ६ उपेक्षा उपविचार अवशिष्ट रहते हैं जिनका आलम्बन कामधातु के रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पष्टव्य और धर्म है, रूपधातु के रूप, शब्द, स्प्रष्टव्य और धर्म हैं और आरूप्यधातु के धर्म हैं। आरूप्यधातु में आकाशानन्त्यायतन की सामन्तक-समापत्ति को पश्चात् की समापत्तियों से विशेषित करना चाहिये : 'कामे स्वालम्बनाः सर्वे रूपी द्वादशगोचरः । थ्या ३११.३४, ३१२.४] त्रयाणाम् उत्तरः (व्या ३१२.१२) ' ध्यानवये द्वादश कामगाः॥ स्वोऽष्टालम्बनम् आरम्यं तयोः [ध्या ३१२.१५] । भाष्य में बताया है कि कैसे कामग' का अर्थ काम को आलम्बनके रूप में ग्रहण करना है। लोत्सव के अनुसार 'ग' शब्द का अर्थ है 'आलम्बनरूप में ग्रहण करना', यथा इस वाक्य में: यह कैसे जाता है ? यह ऐसे जाता है।"-परमार्थ और शुआन-चार में यह विवृति नहीं है। । ध्यानद्वये तु पट् । कामः षण्णां चतुर्णा स्व एकस्यालम्बनम् परः।।