पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६३

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तृतीय कोशस्यान : लोकनिर्देश रोग-गण्ड-शल्य का मूल हैं [और रोग-गण्ड-शल्य से पुनर्भव के पंच उपादानस्कन्ध उक्त हैं]; जरा-मरण के प्रत्यय हैं [और जरा-मरण अनागत भव का जरा-मरण है, ऊपर पृ० दूसरी ओर यह प्रत्यक्ष है कि कवडीकार आहार सत्वों की इह-स्थिति के लिए है। किन्तु मनःसंचेतना में यह सामर्थ्य कैसे है ? ऐसा कहते हैं कि दुष्काल पड़ने पर एक पुद्गल [१२५] अन्य देश को जाना चाहता था। किन्तु वह भूख से बहुत दुर्बल हो गया था और उसके दो पुत्र अभी छोटे थे। यह अनुभव कर कि उसकी मृत्यु हो जायगी उसने एक वोरे में राख भरी; उस बोरे को भीत पर रख दिया और अपने बच्चों को यह कह कर सान्त्वना दी कि बोरे में अन्न है। दोनों वच्चे वहु काल तक इस आशा से जीवित रहे। किन्तु एक व्यक्ति आया और उसने वोरे को खोला। बच्चों ने देखा कि बोरे में राख है। उनकी आशा भंग हुई और वह मर गये।---इसी प्रकार एक दूसरी कथा है कि वनियों का जहाज समुद्र में भग्न हो गया। भूख-प्यास से जब वह अदित थे तव उन्होंने दूर से फेन समुदाय को देखा और उसे समुद्रतट समझा। इससे उनकी आशा बँधी और उनको बल मिला । वह उस स्थान में रहे और उनके जीवन की अवमिवढ़ी, किन्तु जब वह वहां पहुंचे तो उनको ज्ञात हुआ कि यह फेन है। उनकी आशा टूट गई और वे मर गये।' -संगीतिपर्याय में यह पठित्त है कि "समुद्र के बड़े जन्तु भूमि पर आकर तट पर अण्डे देते हैं, उनको वालुका में गाड़ देते हैं और पुनः समुद्र में चले जाते हैं । यदि माता अंडों की स्मृति सुरक्षित रखती है तो अण्डे नष्ट नहीं होते। अन्यथा यदि वह उन्हें भूल जाती है तो वह नष्ट हो जाते हैं।"--यह संस्करण यथार्थ नहीं हो सकता क्योंकि यह असंभव है कि परचित्त आहार हो। अतः हमारा पाठ है कि “यदि अंडे माता का स्मरण करते हैं तो वह नहीं सड़ते; यदि वह माता को विस्मृत कर जाते हैं तो वह सड़ जाते हैं।" किन्तु हम इसमें संदेह नहीं कर सकते कि सव सास्रव धर्म भव की पुष्टि नहीं करते । भगवत् की यह देशना क्यों है कि आहार चार हैं ?-~-क्योंकि उनकी अभिसन्धि प्रधान से है : संयुक्त, १५,७ : रोगस्य गण्डस्य शल्यस्य चत्वार आहारा मूलं जरामरणप्रत्ययः (१)-- व्याख्या के अनुसार 'जरामरणप्रत्ययः यह शब्द इसी सूत्र के (एकोत्तर, २१, ७) एक दूसरे संस्करण में पाये जाते हैं।-विभाषा,१३०, ८~-संयुत्त, ३.१८९ : रूपं रोगो ति गण्डो ति सल्लं ति ... १ स्पर्श और विज्ञान भी गृहीत होते हैं यह मनः संचेतना से संप्रयुक्त हैं। यह आशामोदक या मनमोदक की लोकोक्ति का स्मरण दिलाता है (जैकब, २.११) यह लोकोक्ति न्यायकन्दली, १३० और न्यायवार्तिक, ४३ में है (सर्वदर्शन के अनुवाद में उद्धृत है, म्यूसिमां, १९०२, १६, २२) Si-do-in-dzon (म्यूसेगिमे, विन्लि, एतूद ८.१८९९), १२६ में अशन-पान को मुद्रा, चार आहार, माम्ल की वेदना जो फल-चित्त उत्पादित करती है। इस नाम का अभिवर्म-शास्त्र, नैन्जिओ, १२७६, अध्याय ८,फ़ोलिओ ८ (साएकी); विभाषा, १३०, ६ दुग्छ टीकाकारों के अनुसार सौत्रान्तिक की उक्ति। २