'अभिधर्मकोश [१२६] ४१. आहारों में दो आश्रय और आश्रित की वृद्धि के लिए हैं, दो अन्य भव के आक्षेप और निवृत्ति के लिए हैं। आश्रय सेन्द्रियकाय है जो आश्रित का आश्रय है : अर्थात् चित्त-चैत्त। कबडीकार आहार काय की पुष्टि के लिए और स्पर्श चित्त की पुष्टि के लिए है। यह दो आहार जो उपपन्न को जीवित रखते हैं, जो भोजन सदृश हैं, उत्पन्न सत्व की स्थिति के लिए प्रधान वस्तु हैं। मनः संचेतना जो कर्म है पुनर्भव का आक्षेप करती है (आक्षिपति) । यह पुनर्भव इस प्रकार आक्षिप्त होकर कर्मपरिभावित विज्ञान-बीज से निवृत्त होता है। अतः मनसंचेतना और विज्ञान दो आहार हैं जो उत्पत्ति में प्रत्यय हैं, जो मातृकल्प हैं, जो अनुत्पन्न सत्व की उत् ति में प्रधान वस्तु हैं। [१२७] क्या सब कबडीकार आहार है ? ' ऐसा कबडीकार है जो आहार नहीं है । चार कोटि है: १. एक कबडीकार वह है जो आहार नहीं है जिस कबडीकार प्रत्ययवश इन्द्रियों का अपचय होता है और तदाश्रय महाभूतों का परिभेद होता है। २. ऐसा आहार है जो कवडीकार नहीं है: स्पर्श, मनः संचेतना और विज्ञान । ३. एक कबडीकार है जो आहार
- जिस कबडीकार
प्रत्ययवश इन्द्रियों का उपचय और महाभूतों की वृद्धि होती है।' ४. जो न कवडीकार है, न आहार है : शब्दादि। [अत्र वृद्धयर्थ आश्रया] वित्तयोदयम् । द्वयमन्यभवाक्षेपनिर्वृत्यर्थं यथाक्रमम् ॥ विभाषा में चार मत का व्याख्यात है : १. विज्ञान, स्पर्श, कबडीकार : प्रत्युत्पन्न भव का पोषण करते हैं। चेतना: अनागत भव का पोषण करती है। २. स्पर्श, कवडीकार : प्रत्युत्पन्न भव का पोषण करते हैं। विज्ञान, चेतना : अनागत भव का पोषण करते हैं। ३, कबडीकार : प्रत्युत्पन्न भव का पोषण करता है। स्पर्श, विज्ञान, चेतना : अनागत भव का पोषण करते हैं। ४. पिङ किआ : चार आहारों के दो कृत्य हैं। ' तेषां (चित्तचत्तानां) पुष्टय स्पर्शः--व्याख्या : सुखवेदनीयेनानुग्रहात् यः कश्चिद् वेदना- स्कन्धः संज्ञास्कन्धः सर्वः स स्पर्श प्रतीत्येतिवचनात् । मनः संचेतनया पुनर्भवस्याक्षेपः। कर्मपरिभावितद् विज्ञानबीजादभिनिर्वृत्तिः। परमार्थ : एवमाक्षिप्त भव कर्मपरिभावित विज्ञानवीज से उत्पन्न होता है। शुभआन् चाड : पुनर्भव का अर्थ अनागत भव है। इस अनागत भव का आक्षेप मनः संचेतना करती है। मनः संचेतना आहार से आक्षिप्त हो पुनर्भव का उत्पाद कर्मपरिभानित विज्ञान-बीज के बल से होता है। पू-कुआंग के अनुसार यह व्याख्यान सौत्रान्तिक निकाय का है। सर्वास्तिवादिन् विज्ञान- बीज' इस शब्द का व्यवहार नहीं करते। संगीतिपर्याय, १, ७--यः कश्चित् कवडीकारः सर्वः स आहारः। स्यात् कबडीकारो नाहारः स्थादाहारो न कबडीकारः। स्यादुभयम् । स्थान्नोभयमिति चातुष्कोटिकम् । पं. कवडोकारं प्रतीत्येन्द्रियाणामपचयो भवति महाभूतानां च परिभेदः । यं कबडोकार प्रतीत्येन्द्रियाणामुपचयो भवत्ति महाभूतानां च वृद्धिः। ३ 1 3 ३