पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९८

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i अभिधर्मकोश जाम्बुद्वीपाः प्रमाणेन चतुःसात्रिहस्तकाः । द्विगुणोत्तरवृद्धया तु पूर्वगोदोत्तराह्वयाः ।।५।। पादवृद्ध्या तनुर्यावत् सार्धक्रोशो दिवौकसाम् । कामिनां रूपिणां त्वादौ योजना ततः परम् ॥७॥ अववृिद्धिरुवं तु परोत्ताभेभ्य आश्रयः। हिगुण द्विगुणो हित्वाऽजनकेन्यस्त्रि योजनम् ॥७७॥ ७५-७७. जम्बुद्वीप के निवासियों के शरीर का प्रमाण चार या साढ़े तीन हाथ है। जो पूर्व, गोद और उत्तर कहलाते हैं उनके शरीर का प्रमाण उत्तरोत्तर द्विगुण है । कामदेवों के शरीर की पादवृद्धि होती है यहाँ तक कि वह ११५ कोश का होता है । रूपावचर देवों का शरीर आरंभ में अर्खयोजन का होता है, पश्चात् इसकी अधीर्घवृद्धि होती है। परीत्ताभों से अर्ध्व आश्रय द्विगुण होता जाता है । अनभ्रकों की संख्या से तीन योजन घटाते हैं।' जम्बूद्वीप के मनुष्यों के शरीर का प्रमाण सामान्यतः ३।। हस्त होता है। कोई चार हस्त के भी होते हैं। पूर्वविदेहक, अवरगोदानीयक, औत्तरको रख का शरीर प्रमाण यथासंख्य ८, १६, ३२ हस्त होता है। चातुर्महाराजकायिकों का शरीर क्रोश का चतुर्थभागमात्र होता है (३.८८ ए)। अन्य कामदेवों के शरीर की उत्तरोत्तर पादवृद्धि होती है : त्रायस्त्रिंश, अर्धक्रोश; याम, क्रोश का हुअंश, तुषित, एक क्रोश, निर्माणरति, ११ क्रोश, परनिर्मितवशवतिन्, १।। क्रोश । रूपयातु के पहले देव ब्रह्मकायिक के शरीर का प्रमाण अर्धयोजन है, ब्रह्म-पुरोहितों का एक योजन, महाब्रह्मों का १३॥ योजन और परीत्ताभों का २ योजन है। परीताभों से ऊर्ध्व प्रमाण द्विगुण होता जाता है : अप्रमाणाभों का चार, आभास्वरों का आठ और इसी प्रकार यावत् शुभकृत्स्नों का ६४ योजन । अन्नधकों के लिये इस संख्या का द्विगुण करते हैं किन्तु उसमें से तीन योजन घटाते हैं। अतः इनके शरीर का प्रमाण १२५ योजन होता है। इसी प्रकार संख्या द्विगुण करते जाते हैं। पुण्यप्रसों की संख्या २५० योजन होती है यावत् अकनिष्ठ जिनका शरीर-प्रमाण १६ हजार योजन है। इसी प्रकार सत्वों की आयु भिन्न है। मनुष्यों के सम्बन्ध में : सहस्रमायुः कुरुषु द्वयोराजितम् । इहानियतमन्ते तु दशान्दानादिलोभितम् ॥७८) c 'जाम्बुद्वीपाः प्रमाणेन चतुःसाथिहस्तकाः । द्विगुणोत्तरवृद्धया तु पूर्वगोदोत्तरावयाः॥७॥ पादवृद्धया तनुर्यावत् सार्थकोशो दिवौकसाम्। कामिनों रूपिणां त्वादी योजना तलः परम् ॥७६॥ अधिवृद्धिरुवं तु परीताम्य आश्रयः । द्विगुणद्विगुणो हित्वानभ्रकेम्यस्त्रियोजनम् ॥७७॥