पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८ अभिधर्मकोश ४ ३. विज्ञानस्कन्ध मन-आयतन है; यह ७ धातु हैं अर्थात् ६ विज्ञानकाय (=विज्ञानधातु) और मनोवातु या मनस्। घण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः । षष्ठाश्रयप्रसिद्धयर्थ धातयोऽष्टादश स्मृताः॥१७॥ प्रश्न है कि ६ विज्ञानकाय अर्थात् ५ इन्द्रियविज्ञान और मनोविज्ञान से भिन्न मनस् या मनो- धातु क्या हो सकता है । विज्ञान से भिन्न मनस् नहीं है। १७ ए-वी. इन ६ विज्ञानों में से जो विज्ञान अनन्तरातीत है वह मनस् है । [३२] जो जो विज्ञान समनन्तर निरुद्ध होता है वह वह मनोधातु की आख्या प्राप्त करता है : यथा वही पुत्र दूसरे के पिता की आख्या का लाभ करता है, वही फल दूसरे के बीज की आख्या प्राप्त करता है। आक्षेप-~-यदि जो ६ विज्ञानधातु हैं वही मनस् हैं, यदि मनस् ६ विज्ञानों से अन्य नहीं है तो यदि ६ विज्ञान-धातुओं का ग्रहण करें तो इनमें मनोधातु का अन्तर्भाव होने से मनोधातु का कोई प्रयोजन नहीं है और इस प्रकार १७ धातु होते हैं अथवा यदि मनोधातु का ग्रहण करें तो इनमें पड् विज्ञानधातुओं का अन्तर्भाव होने से उनकाकोई अर्थ नहीं है और इस प्रकार १२ धातु होते हैं । यह इस आधार पर है कि आप भिन्न द्रव्यों को गिनाना चाहते हैं, न कि केवल प्रज्ञप्तियों को। 3 विज्ञान आनुपूर्विक होते हैं; वह चक्षुर्विज्ञान . ......मनोविज्ञान हो सकते हैं। जो विज्ञान निरुद्ध होता है वह अन्य विज्ञान से अव्यवहित, अपने अनन्तर के विज्ञान का समनन्तर प्रत्यय (२.६२ ए) और आश्रय होता है। इस आकार में इसको मनस्, मन-आयतन, मनोधातु, मन-इन्द्रिय (२.१) संशा होती हैं। इसका अनन्तर-विज्ञान से वही सम्बन्ध है जो चक्षुरि- न्द्रिय का चक्षुर्विज्ञान से है। ४ पण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः । व्याख्या ३८.३१] (१.३९ ए-बी देखिए) व्याख्या के अनुसार योगाचार-दर्शन में षड्विज्ञान से व्यतिरिक्त एक मनोधातु, एक मनस् है । ताम्रपर्णीय मनोविज्ञानधातु का एक आश्रय कल्पित करते हैं (कल्पयन्ति); इसे बह 'हृदयवस्तु' कहते हैं। यह रूपी इन्द्रिय है। यह हृदयवस्तु आरूप्यधातु में भी विधमान होता है। इन आचार्यों को आरूप्यधातु में भी रूप अभिप्रेत है (८.३सी) व्याख्या ३९.२५] : 'आ' उपसर्ग को यह ईषत् के अर्थ में लेते हैं। यया आपिंगल, 'ईषत् पिंगल' । पट्टान (काम्पेण्डियम आफ फिलासफी, पृ० २७८ में उद्धृत) के अनुसार मनोविज्ञान का आश्रय एक रूप है किन्तु वह इस आश्रय को 'हृदयवस्तु' को आख्या नहीं देता। वह चक्षुर्विज्ञान पो आश्रय फर नाम 'चक्षु' बताता है किन्तु पीछे का अभिधम्म (विसुद्धिमग्ग, अभिधम्मत्य- संगह) हृदयवस्तु को मनोधातु का निश्रय मानता है। विभंग, पृ० ८८ की शिक्षा कम स्पष्ट है : "जो चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्र • कायविज्ञान समनन्तर निरुद्ध होता है उससे चित्त, मनरा, मानस (= मनस्), हुक्ष्य (=चित्त), मनस्, मन-इन्द्रिय ...... उत्पन्न होता है।" (अत्यसालिनी, ३४३) । हृदयवस्तु, काम्पेण्डियम, १२२, २७८, जे० पी० टी० एस० १८८४, २७-२९, अस्थसालिनी, १४०, मिसेज राइस देविड्स, बुल० एस० ओ० एस०, ३. ३५३, गातककया से उद्धृत करती हैं.....हदयमसन्तरे परिट्टिता पञ्जा; सिद्धि, २८१।