पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४६

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश २० ए-बी.स्कन्ध 'राशि को कहते हैं (विभाषा, ७४, पृ० ३८३) ! आयतन का अर्थ 'आयद्वार' 'उत्पत्तिद्वार' है; धातु से आशय 'गोत्र' का है।' १. सूत्र में स्कन्ध 'राशि' को कहते हैं: "यत्किंचित् रूप अतीत हो या अनागत या प्रत्यु- त्पन्न, आध्यात्मिक हो या वाह्य, औदारिक (=स्यूल) हो या सूक्ष्म, हीन हो या प्रणीत (= उत्तम), दूर हो या अंतिक, इन सबको एकत्र कर रूपस्कन्थ होता है।" वैभाषिकों के अनुसार (१) अतीत रूप अनित्यता से निरुद्ध रूप है, अनागत रूप अनुत्पन्न रूप है, प्रत्युत्पन्न रूप उत्पन्न और अनिरुद्ध रूप है; (२) रूप आध्यात्मिक है जब वह आत्मसन्तान में (१.३९) पतित है; अन्य सव रूप वाह्य है; अथवा आध्यात्मिक [३६] और वाह्य आख्याएं आयतनतः समझी जाती हैं : चक्षुरिन्द्रिय आध्यात्मिक है क्योंकि यह स्वसन्तान या परसन्तान में पतित है; (३) रूप औदारिक है जब यह सप्रतिष है (१.२९ वी), सूक्ष्म है जब यह अप्रतिध है; अथवा यह दो आख्याएं आपेक्षिक हैं, आत्यन्तिक नहीं। क्या यह आक्षेप होगा कि इस द्वितीय विकल्प में औदारिक और सूक्ष्म सिद्ध नहीं होते क्योंकि एक ही रूप अपने से सूक्ष्म रूप की अपेक्षा औदारिक है और अपने से औदारिक रूप की अपेक्षा सूक्ष्म है ? यह आक्षेप व्यर्थ है क्योंकि अपेक्षा-भेद नहीं है: जब एक रूप दूसरे रूप की अपेक्षा औदारिक होता है तो उसी की अपेक्षा कभी सूक्ष्म नहीं होता- पितृपुत्रवत्; (४) हीन रूप किल्ष्ट रूप है, प्रणीत रूप अक्लिप्ट रूप है; (५) अतीत या अनागत रूप दूर है, प्रत्युत्पन्न रूप अन्तिक है । अन्य स्कन्वों की भी योजना इसी प्रकार होनी चाहिए। किन्तु यह विशेष है कि औदारिक विज्ञान वह है जिसका १ राश्यायद्वारगोत्रार्थाः स्कन्वायतनधातवः। व्याख्या ४२.२६] २ संयुक्त, २५, २ः यत् किंचिद् रूपमतीतानागतप्रत्युत्पन्नं आध्यात्मिकं वा वाह्यं वा औदा- रिकं वा सूक्ष्म वा हीन वा प्रणीतं वा दूरं वा अन्तिकं वा तदेकध्यमभिसंक्षिप्याध्यमुच्यते रूपस्कन्धः । विभंग, पृ.१ से तुलना कीजिए। व्याख्या के संस्करण में व्याख्या ४२.३२] 'ऐकध्यम्' पाठ है किन्तु महाव्युत्पत्ति २४५, ३४३ का पाठ 'एकध्यमभिसंक्षिप्य है। वोगिहारा सूचित करते हैं कि दिव्य, ३५, २४; ४०, २२ में 'एकध्ये है। 3 अनित्यतानिरुद्ध अर्थात अनित्यता नामक संस्कृत-लक्षण (२.४५ सी-डी) से विनष्ट । [व्याख्या ४२.३२] निरोप पांच प्रकार के हैं: (१) लक्षणनिरोध (२.४५ सी-डी) जो यहां अभिप्रेत है, (२) समापत्तिनिरोध (२.४१ सो), (३) उपपत्तिनिरोध (=मासंज्ञिक, २.४१ वी), (४) प्रतिसंख्यानिरोध (१.६ ए-बी), (५) अप्रतिसंख्यानिरोध (१.६सी-डो)। यदि भाष्य मैं केवल 'अतीतं रूपम् निरुद्ध' होता तो 'निरुद्ध' शब्द के अविशेषित होने से निरोघ २-५ का भी प्रसंग होता किन्तु निरोध २-३ अनागत चित्त-चत्त का निरोध है। चौथा निरोध सास्रव चित्त-चत्त का निरोध है और पांचवां निरोध अनुत्पत्तिधर्मा अनागत धर्मों का निरोष है। व्याख्या ४३.२] १ आर्यदेव, शतक, २५८ सिद्ध करता है कि यह लक्षण अनागतास्तित्ववाद के विरुद्ध है। दूरता, कथावत्यु, ७.५.