पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/५७

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४२ अभिधर्मकोश छिनसाकाशधात्वाख्थमालोकतमसो किल । विज्ञानधातुर्विज्ञान सालवं जन्मनिशयः ॥२८॥ २८ ए-बी, छिद्र को आकाशधातु की आख्या देते हैं। कहते हैं कि यह आलोक और तम द्वार, गवाक्षादि का छिद्र बाह्य आकाशधातु है: मुख, नासिकादि का छिद्र आध्यात्मिक आकाशधातु है। वैभाषिक के अनुसार (किल) छिद्र या आकाशधातु आलोक और तम है-~-अर्थात् वर्ष [५०] का, रूप का (१.९ बो) एक प्रकार है क्योंकि छिद्र की उपलब्धि आलोक और तम से पृथक् नहीं है । आलोक-तम के स्वभाव का होने से छिद्र रात्रि-दिन के स्वभाव का होगा।' छिद्र अघ. सामन्तक रूप कहलाता है (विभाषा, ७५, ९) । कहते हैं कि नरुक्त विधि से 'अघ' का अर्थ 'अत्यर्थ हननात्' है अर्थात् 'क्योंकि यह अत्यंत अभिघात करता है और अभिहत होता है। अतः 'अध' का अर्थ संघातस्थ, संचित रूप है । छिद्र अध का सामन्तक रूप है। एक दूसरे मत के अनुसार, हमारे अनुसार, 'अघ' का अर्थ है 'प्रतिधात से रहित (अ-भ) २ यहां वह सूत्र इष्ट है जो आश्रय के धातुओं का निर्देश करता है षड्धातुरयम् भिक्षो पुरुषः। वसुबन्धु गर्भावकान्तिसूत्र के नाम से उसको उद्धृत करते हैं (१.३५)। (विनयसंयुक्त- फवस्तु, ६ ११, नेनजियो , ११२१; रत्नकूट, अध्याय १४, नैनजियो, २३.१५१) मझिम में इस सूत्र को धातुविभंगसुत्त (३.२३९) कहा है । यह पितापुत्रसमागम का एक प्रभव है जिसके उद्धरण शिक्षासमुच्चय, पृ० २४४, बोधिचर्यावतार, ९. ८८, मध्यमकावतार, पृ० २६९ में पाए जाते हैं। ५०२३, नोट १, पृ० ६३, नोट १ और २२३ सो-डी की टिप्पणी में उद्धृत प्रकरणपाद देखिए । ६ धातुओं पर अंगुत्तर, १.१७६, विभंग , पृष्ठ ८२-८५, अभिधर्महृदय, ८.७ देखिए। ३ छिद्रमाकाशधात्वाख्यम्] आलोकतमसी किली व्याख्या ५७.१२] ४ धर्मस्कन्ध, अध्याय २०. विभाषा, ७५, ८--विभाषा, ७५ पृष्ठ ३८८, कालम २, धर्मस्कन्ध, १० पृ० ५०३, कालम २ । विभंग, पृ० ८४ में यही लक्षण है : कतमा अझत्तिका आकासधातु ? यं अज्झत्तं पच्चतं आकासो आकासगतं अघ अधगतं विदरो विचरगतं ।.... ...कण्णच्छिदं नासच्छिद्दे .. फू-कुआंग (को-की, १७) : "यह दिखाने के लिए कि यह वर्ण-प्रकार और वस्तुसत् है कोई आकाशधातु को आलोक और तमस् बताते हैं। आचार्य का यह मत नहीं है कि आकाशधातु वस्तुसत् है। इसलिए वह 'किल' शब्द जोड़ते हैं।" वसुवन्धु और सौत्रान्तिक आकाशधातु को सप्रतिघ द्रव्य का अभाव मात्र मानते हैं। २.५५ सी-डी देखिए। विभापा, ७५, ९ : आकाश और आकाशधातु में क्या भेद है ? पहला अरूपी, अनिदर्शन, अप्रतिघ, अनीलव, असंस्कृत है। दूसरा रूपी... व्यास्पा के पेटोग्राड संस्करण में 'आध' पाठ है: आघं किल चितस्थ रूपं इति चितस्थं संघात- स्थम् । अत्यर्यम् हन्ति हन्यते चेत्याघम् ।...... (जापानी संस्करण का पाठ अध है। ५७.१६) अत्यर्यशब्दस्य आकारादेशः कृतो हन्तेश्च घादेशः । किन्तु बफ की पाण्डुलिपि फा पाठ अघम् .......अकारादेशः है। ३.७२ को व्याख्या में अघ वित्तस्थरूप महान्युत्पत्ति, २४५, १६२०