पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०८ अमर अभिलापा "क्यों-हर्न क्या है, भगवती ? मैं क्या और हूँ?" भगवती ने उसकी थोर देखा, फि करुणा और अनुराग उसके मुख पर रह रहा है। उससे भयभीत होकर उसने कहा-"ना, ना, तुम जायो, मैं नहीं लूंगी।" कहकर भगवती चलने लगी। युवफ ने नम्रता से कहा-"जरा व्हरो तो भगवती, एक यात और कहनी थी।" "जन्दी कहो ?" "तुम्हें एक बात मालूम है ?" "कौन पात?" स्थिर दृष्टि से भगवती को देखते-देखते युवक ने कहा-"पहले मेरे साथ तुम्हारा व्याह पका हुआ था।" "मालूम है।" यह कहकर भगवती ने दूसरी श्रोर को मुंह फेर लिया। युवक ने देखा, कि उसकी आवाज़ दुःख से लबालव है। उसने उसी प्रसङ्ग में कहा-"अगर वैसा होनाता भगवती ?" भगवती ने अन्यत्र देखवे-देखते वेनन से कहा-"हो कैसे जाता ? भगवान् जो करते हैं वही होता है।" "अन्ना, जो भगवान् ऐसा करते ?" "पर किया तो नहीं।" "और यदि ऐसा करते तो?" "तो क्या ?" कहकर भगवती ने उदास दृष्टि से युवक की ओर देखा।