पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपन्यास १०७ अब सोचकर भगवती ने कहा-"और भाई-भावन मना करें, तव "उनसे कहने की ही क्या जरूरत है ?" "नो देख लें ?" "तुम सावधानी से रक्खो-ौर देख ही ले, तो कह दिया करना, कि चम्पा ने दी है।" भगवती क्षण-भर चुप रहकर बोली-"पर मेरे पास वे सब चीजें भागी कैसे ? मैं ही तुम्हें कैसे खबर कली ?" युवक ने इधर-उधर देखकर धीरे-से कहा-"निया नाइन को जानती हो ? वह तो तुम्हारे घर जाती रहती है। उसे जो तुम काराज़ दोगी, मुझे चुपचाप मिल जायगा। मैं भी उसी के हाय चीजें भेज दिया करूंगा, और खाने-पीने की चीज़ों को लिखने की वो जलत ही क्या है, मैं खुद भेजूंगा ! योदा मेवा और मिठाई शहर से लाई रक्खी है, उसे पान ही रात को भेजूंगा। पर देखना, किसी पर बात खुलने न पावे । भला!" बालिका लालच में आगई। वर्षों बीत गये थे, मेवा और मिठाई उसने जवान पर न रखी थी। भाई और पिता की मूली थाली से ही उसका भरता था। उसके मन में ऐसा हुआ, कि अभी यहीं यह मिठाई दे, वो यहीं खड़ी-खड़ी खा । पर तुरन्त उसने सोचा-यह कौन है, उसकी चीज़ मैं क्यों ? कोई क्या कहेगा? यह सोचकर उसने कहा-"नहीं, मैं नहीं "