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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/११६

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११४ अमर अभिलापा भगवती एक बार सिर से पैर तक कांप उठी। वह मुँह फेर- कर सुखिया को ले बैठी। छजिया ने गृहिणी ने पूछा-"झ्या मी भी हो?" वृद्धा को मुँह खोलने की जलत ही न पड़ी। किरपू ने 'तुरन्त कह दिया-"हमाला कुलता है।" छजिया ने हसकर कहा-"श्रोहो! किरपू वायू, तुम्हारा कुरता है?" - "हाँ, हम दादाजी के छंग मेले में जांगे।" छनिया ने हँसते-हँसते फिरपू को गोद में उठा लिया सुखिया ने भगवती से फहा-"यीयी, हमें फुलता दो।" धनिया ने फिरपू को गोद से उतारते-उतारते कहा-"श्रा, इधर श्रा! मैं हूँ तुझे कुरता।" इतना कहती-कहती सुखिया के लेने को वह भगवती की ओर लपकी। भगवती बड़ी धाराई, पर छजिया ने उसी के पास वैफर कहा-"क्यों भगो बीवी, मुम- से बोलती भी नहीं हो? क्या नाराज हो?-या मुझे पहचानती नहीं हो?" गृहिणी ने कहा-"इसके सभी लच्छन ऐसे है। घर में इतनी लुगाई घाती है, पर किसी से यात ही नहीं करती; दिन- भर किवायों को लिये बैठी रहती है। वाप ने किताव लादी हैं। जाने क्या-क्या श्राप ही वाँचा करती है। ज्ञान की बातें हमारी समझ में तो पाती नहीं हैं।"