उपन्यास १२३ नृदा सहमत हुई। गाड़ी आई, और थयोध बालिका उस पर चढ़ बैठो-दुष्टा विश्वासघातिनी वृद्धा उसे ले चली। वालिका को मार्ग का ज्ञान न था। फिर रात्रि का थन्ध- कार। जय एक विशाल बारा में गादी खड़ी हुई, और वृद्धा ने कहा-"उतरो," तय सुशीला को चेत हुआ। वह धयराई, हुई थी-निस्शक उतरकर साथ हो ली। सामने के वृक्ष के नीचे से भूत की भांति एक मनुष्य-मूर्ति ने उनका अनुसरण किया। मुशीला ने वृद्धा का हाथ पकड़कर कहा-"चाची, वह पीड़े-पीछे फोन था रहा है।" "कोई नौकर होगा।" यह कहकर वृद्धा उसका हाथ पकड़- कर, तेजी से आगे की चलदी। पालिका ने देसा-मागे धागे थंधेरे में एक और भादमी ना रहा है, वृद्धा उसका अनुसरण कर रही है। एक शक्षा की छाया सुशीला के हृदय में उठी। उसने खड़ी होकर कहा-"चाची, लौट चलो। मेरी इच्छा वहाँ जाने की नहीं है। वृद्धा ने फटोर स्वर में कहा-"इतनी दूर पाकर लौटना भी हैसी-खेल है! आई हो तो मिलती चलो।" सुशीला जमकर खड़ी होगई। हठात् एक वलिष्ठ पुरुष ने पीछे से श्राकर, उसके मुंह में. कपदा हूँस दिया, और उसे हाथों-हाथ उठाकर चल दिया।
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