उपन्यास १२५ , . का एक दोना उसके हाथ में दे दिया। भगवती ने उसे डरते-डरते हाय में ले लिया। छलिया ने कहा-"कपड़ों के चुकचे में छिपाकर रखा।" भगवती ने वही किया। मिाई छिपाकर भगवती कठपुतली की तरह फिर चनिया के पास आ खड़ी हुई। छजिया ने मुत्कराकर कहा-"वता, और क्या चाहिये ?" "कुछ नहीं, अव तु मा । देख, माँ न थाजार ।" "मां थानयगी, तो क्या है ?--भानाय !" "तुझे यहाँ अकेली मेरे पास खड़ा देखकर क्या कहेगी ?" छनिया ने फटाक्ष-पात करके कहा-"क्या कहेंगी? मैं कोई इरगोबिन्द तो हूँ नहीं । लुगाई के पास लुगाई पाती ही है- उसमें कहना-सुनना क्या है?" भगवती ने उलटकर कहा-"अच्छा, श्रव तू ना।" "अच्छा नाती हूँ, पर और चीज़ सब वापस लेनाऊँ क्या?" भगवती ने जल्दी में कहा-"और क्या है ?" "कुछ ही हो, तुझे तो 'ना-जा' लग रही है।" इतना कहकर कनिया नजरे से चलने लगी। भगवती ने वनिक हँसकर कहा-"असा, यता तो क्या है। दिक मत कर।" "तैने कुछ उस दिन मैगाया था ?" "किस दिन ?" "फिस दिन! भय याद थोड़े ही है ?-निस दिन नदी महाने गई थी?"
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१२७
दिखावट