सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५० अमर अभिलाषा . । धीरे रामायण के पढ़ने में उसने मन लगाया, और वह प्रायः उसे चुपचाप पढ़ा करती, और आँसू बहाया करती थी। उसकी यह एकान्तप्रियता और मौन घर की स्त्रियों को खट- कने लगा । शीघ्र ही उस पर ताने कसे जाने लगे, और वह घर का मुख-मी धन्धा न करके पुस्तक पढ़ा करती है-इस पर खुल्लमखुल्ला आक्षेप होने लगे। कुमुद ने सब कुछ सहने का निश्चय कर लिया था। वह एक बार भोजन करती, और चटाई पर बैठी रामायण-पाठ करते-करते वहीं वह सोती । भोजन ताज़ा है या बासी, रूखा है या सूखा, कम है या यथेष्ट-इसकी विवेचना से उसे कुछ प्रयोजन नहीं। अन्त में एक दिन वह भी हुआ, जो बहुधा होता है । कुमुद को ज्वर आगया था, वह चटाई पर चुपचाप पड़ी थी। जिलानी ने कहा-“बहू, इस तरह पड़े-पड़े तो शरीर मिट्टी हो जायगा; कुछ काम धन्धा फिया करो।" कुमुद बोली नहीं, चुपचाप एफटक देखती रही। निठानी ने जरा उच्च स्वर में कहा-"क्या गूगी हो, जवाव ही नहीं देती? या हम तुमसे बोलने के योग्य नहीं ?" कुमुद अब भी चुप रही । यह देख, निगनी क्रोध से थर-थर काँपने लगी। उसने चिल्ला-चिल्लाकर कहना शुरू किया--"अरे! देखो, इस राँद की आँखें, इसका ख़सम कमाकर रख गया है, रानी पढ़ी-पढ़ी खायेगी। घर का काम-धन्धा तो करेगी नहीं, किसी भादमी से बात भी न करेगी।"