पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५५

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उपन्यास घर-भर में गोंगा मच गया सभी अपनी-अपनी बकती थीं, पर कुमुद ने एक शब्द मी नहीं कहा । वह चुपचाप चटाई पर पड़ी रही। वृद्धा ने पाकर कहा-"वया है री, क्यों उसे तन कर रही हो?" "उसे अम्नानी-तुम माथे पर रख लो।" "वह तुम्हारा क्या खाती है ?" "उसका ख़सम तो बहुत रख गया है न !" वृद्धा ने उन्हें एक झिड़की दी, और कुमुद के माथे को देखा। उससे कहा-"वह उठ, खाट पर सो रह; तुझे ज्वर होरहा है।" कुमुद बोली नहीं, उठो भी नहीं । हाँ, उसकी आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। वाइसवाँ परिच्छेद गर्मी के तो दिन थे ही, सन्ध्या को भोजन करके हरनारायण कोठे पर मजे से पढ़े पान कचर रहे थे। तभी श्रीमती हरदेई ने पहुंचकर कहा- "वड़े सुख से लेट रहे हो !" हरनारायण पान जरा खुश थे। उन्होंने हंसते-हंसते कहा- "सुख से लेटना तो कोई पाप नहीं है।"