पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५८

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अमर अभिलाषा खड़े, स्त्री की ओर ताकते रहे। हरदेई ने कहा-"क्यों ? समझे. नव वहन की करतूत ?" उसकी बात मानो अनसुनी करके उन्होंने पूछा-"यह पुर्जा तुम्हें मिला कहाँ?" "सुखिया कहीं से ले आई थी वह खेलती फिर रही थी। किरपू उससे छीनने-झगड़ने लगा । सुखिया मचलकर धरती पर पढ़ गई । तव में किरपू से छीनकर उसे वहशाने लगी। अचा- नक लिखावट पर नज़र पड़ी। पहले तो समझा, कोई रही कागज होगा । पर छजिया का नाम लिखा देखकर जो पदा, वो उसमें यह कौतुक भरे पड़े हैं।" हरनारायण विना कुछ कहे, भगवती के कमरे की ओर दौड़े। उस समय वे क्रोध से पागल होरहे थे। तेईसवाँ परिच्छेद भगवती बैठी हुई हरगोविन्द की भेनी हुई मिठाई खारही थी। अभी रसगुल्ले का एक टुकड़ा उठाकर मुँह में दिया ही था, कि इतने में उसके कान में आवाज़ पढ़ी- भग्गो ! भगो! थरी भग्गो ! कहाँ गई ?" भगवती भाई की भावाज़ पहचानकर, एकदम घबरा उठी। उसका खून थम गया। उसने मुँह की मिठाई खाट के नीचे.