पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५९

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उपन्यास यूककर पीर अरदी से मुंह पाइपर कहा-"हाँ भाई ! थाती हूँ।" इतना कहकर, और जल्दी से मिटाई को यिस्तरे में विपापर बाहर को दौदी। बाहर धरनारायण को देखकर कहा-"क्यों भैया! क्या है ? तुमने मुझे पुफारा या!" हरनारायण ने फदी नज़र से उसकी मोर देखकर कहा- "तू कर क्या रही थी ?" भगवती ने सिपिटाकर कहा-"मैं ? मैं कुछ नहीं-पढ़ रही थी।" "हूँ, पढ़ रही थी? अंधेरे में बिना दिये-यत्ती क्या पर रही थी?" भगवती का न सूस गया। उसने सम्हलकर कहा- "भैया! मुझे पढ़ते-पढ़ते अभी नींद आगई थी । तुमने क्या मुझे कई थावाजें दी थीं?" इतना कहकर उसने भाई के क्रुद्ध मुख को देखा । उसे देख- फर उसके रहे-लहे होश भी नाते रहे। हरनारायण ने उसे थग्नि- मय दृष्टि से देखकर कहा-"अभागिनी! तु वहाँ क्यों गई थी?" अब तो भगवती थर-थर काँपने लगी। पर उसने सावधान होकर बवाब दिया-"कहाँ भैया ?" "कम्बस्त लटकी ! तुम यही जमीन में गाड़ दूंगा। इस बहानेबाज़ी को छोड़कर नवाव दे। सच यता, व वहाँ क्यों गई थी ? नहीं तो थान तेरी शामत थाई रखी है।" भगवती के सारे शरीर में थाग-सी लग रही थी। घर के