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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१७४

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१७० अमर अभिलापा "तब मैं समझ गया--तुम मुझसे तनिक भी प्रेम नहीं करती" "तुम्हारी समझ पर पत्थर पढ़े !" "श्रय यों नली-फटी सुनायोगी?" "दिल जलेगा, तो जली ही यात निकलेगी।" "अच्छा, मैं पाग पर पानी डाल देता हूँ।" इतना कहकर युवक ने प्याला शराव भरकर उसके श्रोठों से लगा दिया। युवती गटागट पी गई । इसके बाद युवक ने कहा-"ले अव एक मुझे पिला दो, फिर हम लोग रस-रंग में बूब जायं।" युवती ने प्याला भरकर युवक के होठों से लगा दिया । इस- के बाद और एफ-एफ प्याला चढ़ाकर दोनों वाही-तयाही वकने लगे। युवक ने कहा-"प्यारी वसन्ती, उस छोकरो का भी फिर' कुछ हाल-चाल मिला?" "उस दर्जिन की घास कहते हो वह तो उस दिन नो छिटककर भागी, तो फिर दिखाई न हो । मैं उस दिन गई भी थी, परं उमने तो रुख ही न मिलाया" "उसे मिला लिया जाय, तो मज़ा है। कुछ लोभ-लालच दो।" "इसका उस पर कुछ असर पड़ेगा।" "यही हाल भगवती का भी था, पर अन्त में भागई हायः में या नहीं