उपन्यास १६९ "नाराज़ न हो, पसन्ती, मैं इसी हफ्ते में तुम्हारी मनचाही चीज़ जल बनवा दूंगा। अभी रुपये फी जरा कमी पापडी है।" स्त्री ने मुंह फुलाकर कहा-"चलो हटो, पाजकल मठों का साल भी बांका नहीं होता। पहिले लेन्ट मर लाया करते थे।" "लो, श्य मूग समनने लगी !" "बैर, तुम बड़े सच्चे प्रादमी सही; परन्तु महरयानी फरके हममे न बोलो।" "तो योनला करो।" "किसे हमारे ने की परया है ?" "क्या तुम नहीं जानती, मैं तुम्हें किनना चाहता हूँ ?" "मैं खूब जानती हूँ, तुम अपने रुपयों को चाहते हो।" "ऐसा न होता, तो क्या २-३ नौ रुपये के लिये इतना -कहलाते " "प्यारी, इस वक्त, फार-रोजगार का हाल ऐसा ही हो रहा 66 "तब तुम कार-रोजगार के फ्रिक फरो।" "अब गुस्से को दूर करो, मैं इस हफ्ते में जल तुम्हारी चीज़ ला दूंगा।" मैं गुस्सा करके कर ही क्या सकती हूँ ? मेरी किस्मत में ही लो नहीं, उसकी क्या बात है?" इतना कहकर सुन्दरी ने लन्त्री सांस खींची।
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