अमर अमिलाया इस पर जयनारायण ने गिडगिहाफर कहा-"देखना, किसी को काना-कान न मालूम हो; वरना मुझे इय मरने को जगह न रहेगी।" "नहीं, ऐमा भी हो सकता है ? ऐसी-ऐसी फितनी यास पेट में छिपी पदी, पर फिसी से फहते घोड़े दी है?" जयनारायण फाँप उठे! पदिनी के जाने पर उन्होंने मोचा- कैसे भयकर और नीच धादमीको उन्होंने अपनी शान सौंप दी है। इसे याद करके वे ऐसे घबराये, कि उस रात एक पल को उनकी प्राग्वं न लगीं। तीसवाँ परिच्छेद । कुमुद स्नान कर, एफ स्वच्छ साटी पहिनकर अपनी कोठरी में पूना करने बैठी थी। वह बार बन्द किये चुपचाप पति-परमेश्वर का ध्यान कररही थी । उसको मुख-मुद्रा मौन थी । सामने एक चौकी पर राधाकृष्ण की युगल-मूर्ति थी। उससे वनिक हटकर नीचे की घोर खड़ाऊँ का भी एक बोडा धरा या, जो भली भांति धो-पोंछकर धरा गया था । उन पर बाजे फूलों का ढेर पड़ा था, सुगन्धित धूप जल रही थी । कुमुद मानस-नेत्रों से पति के दर्शन कर, पुलक्ति होरही थी। वह अपनी समस्त वेदना और अपमान मूल गई थी। वह मन-ही-मन कह रही थी-हे स्वामी, हे पर-
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