पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१९३

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उपन्यास १८९ M मेश्वर, हे शरीर और श्रात्मा के स्वामी ! जब मैंने यह शरीर और श्रात्मा, श्रापको प्रदान ही करदी, सब यह आपकी वस्तु यहाँ रही तो क्या, धौर वहाँ रही तो क्या । थापकी इस प्यार की घस्तु को मैं षयों नष्ट करूंगी। क्यों, उस स्मृति मन्दिर को विश्वम कल,निसमें गत १२ वपों से उस देवता की प्रतिमा मैंने स्थापित की है, जिसने मुझे सौभाग्य दिया, स्त्रीत्व दिया, जीवन दिया और अन्ततः जगत् का एक मनमोल लाल दिया? वह अपने मानसिक भावावेश में विभोर होरही थी। उस समय जीवन और मृत्यु उसकी दृष्टि में कोई घटना ही न थी। वाट प्रत्यद अपने प्रिय पति को अपने..अत्यन्त निकट देख रही थी, इतने निकट, जितना कभी भी पति की जीवित अवस्था में वह नहीं देख सकती थी। वह और उसके पतिदेव श्रय एफ थे, शरीर और शात्मा एक होगई थी। उसने बडी देर तक घाम- विवेचन किया, और फिर आँखें खोल दी। उसने मुफफर उन. सड़ाकों को घाती से लगा लिया। वह पाखें यन्द कर, बहुत देर वफ उसी स्थिति में बैठी रही। थोड़ी देर में उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई । परन्तु यह आँसू प्रेम और पानन्द के ये, शोक और उद्वेग के नहीं उसने रामायण की पोथी निकाली, और धीरे-धीरे उसने उसका पाठ प्रारम्भ किया "वह अनुसूया-वर्णित पतिव्रत-धर्म को पद रही थी। उसकी वाणी कोमन, विश्वस्त और स्निग्ध थी। उसे इस बात का सनिक भी गुमान न था, कि अचानक.