सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपन्यास १९१ ययान फरती । यह लव सुनकर मालवी फभी तो इस देवी, कमी गम्भीर होकर सुनती । परन्तु वह जय इमुद के पास से लौटकर जाती, तब बहुधा एकान्त में रोती थी। पयों ? इसलिये फि वह उन पवित्र विचारों और उच्च शादी के अनुकूल अपने विचारों को न ना लक्ती थी । वैधव्य के दुःख से उसका हृदय हाहाफार फरता था । वह उस सुखद मनोहर मूर्ति के प्रभाव को सहन न कर सफती यो, लिसे उसने जी भरके देखा भी न था। उसके धर्म-चक्षु प्रवल थे, वे ज्ञान को भीतर नहीं फंसने देते थे। परन्तु लव उसने सुना, कि कुमुद पर भी यही वन टूट पड़ा-यह विधवा होकर आई है, तो वह कुछ दिन तक की उसके सन्मुख धाने का साहस ही न कर सकी। वह सोचती- कुमुद, मेरी प्यारी सखी अय कैसी होगई होगी ! पर नव एक दिन उसने उसके सन्मुस अाने का साहस फिया, वो देखा- वह समुद्र के समान गम्भीर, कुमुद खड़ी है। उसने मालवी को प्रेम से गले लगाया, और कहा-“यहन, भय हम-तुम परस्पर बहुत-ही निकट होगये।" मालती पूट पड़ी। वह थपना, और अपनी सखी का दुःख सह मी थी ? उसने कहा-"जीनी, तुम कैसे होगी? मैं तो तुम्हारे पासरे सह सकी थी।" कुमुद ने करुण नेत्रों से मालती को देखा, और कहा- 'मालती, अब तू सत्य बात को देख सकेगी। मेरे जान तो