१९२ अमर अभिलापा मेरे स्वामी मेरे अत्यधिक निकट होगये हैं।" कुमुद ने घारम्बार. मालती को वैधव्य-तत्व समझाया। वैधव्य के कारण कुमुद को लो तिरस्कार और लान्छना की. मार पड़ी, उसने कुमुद के सत को मानों अग्नि पर वपा दिया। कुमुद की घाँखों में तपस्विनी के समान तेज उत्पन्न होगया। गम्भीर विवेचना, सहिष्णुता, पवित्रता, धैर्य, यह सब मिलकर कुमुद के चरित्रवान् सौन्दर्य में जब रम गये, तो उसमें एक अहुत माधुर्य थौर देख पागया । मालती पर उसका बहुत-ही प्रभाव पड़ा । कुमुद ने मानती का संकोच और खेद-जो उसे कुमुद के दुर्भाग्य पर हुआ था-उसे शीघ्र ही दूर कर दिया, और कुमुद से मालती वैसी- ही प्रसन्नतापूर्वक मिलने लगी। अलबत्ता उसके मन में कुमुद के प्रति श्रद्धा और श्रादर अवश्य उत्पन्न हुा । वह कुमुद की- ही भाँति पूना-पाठ और रामायण-पाठ में मन लगाने लगी। वह उस थाट पति का मानसिक घड से दर्शन पाने की भी. इच्छा करने लगी-जिसे उसने वास्तव में कभी भलीभांति. देखा भी न था। थान अभी वह पूना से उठकर, उसी. पूजा स्थान पर एक माला Dथफर कुमुद को परिनाने श्राई थी। माला उसने गुंगी. थी-उस अदृष्ट पति-परमेश्वर के लिये, पर वह उस अमूर्त मूर्ति को बहुत चेष्टा करके भी न देख सकी। वह कुछ खिम हुई भवश्य, पर बिना देखे वह उस परिश्रम और प्रेम के सम्पुट
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