पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२०७

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उपन्यास - "तुम्हारा मन चाहे जितना शुद्ध हो, परन्तु सब का मन तो वैसा नहीं हो सकता।" "दया तुम इसकी इतनी परवाह करते हो?" "अब तुम मुझसे बिगड़ने लगे!" "मैं सिर्फ यह पूलता है, कि क्या तुम कुछ दिन इसे आश्रय दोगे?" "यह यात क्यों पूछते हो? क्या तुम मुझे अपने-से मिल समझते हो?" "नहीं, परन्तु यदि कोई मगा-झमट या बदनामी सिर श्यामा वावू हंस पड़े। उन्होंने कहा-"वह भी सहूँगा। और बोलो?" "यस, और कुछ नहीं।" प्रकाश उठ खड़े हुये; मित्र के साय हंसे भी नहीं। उनकी आँखों और होठों में एक कठोर छाया व्याह होरही थी। श्यामा बाबू ने इस पर लक्ष्य मिया, और प्रकाश का हाथ पकड़कर कहा-"मुझे तुम्हारे रंग-ग अच्छे. नहीं मालूम होते । तुम्हारा इरादा यया है ?" प्रकाश ने संयत भाषा में कहा-"मेरा इरादा बहुत पविनः है, और वह तुम्हें शीघ्र ही प्रतीत हो जायगा।" "अभी क्यों नहीं बता देते ?" "इसके कारण हैं।" श्यामा ने गहराई तक जाने की चेष्टा ही नहीं की। वे हँस-