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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२१

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"उपन्यास बदा होता, तो क्या इतनी दवा-दारू व्यर्थ जाती? यह लड़की 'बढी श्रमागिनी है। होनहार नहीं टल सकती-किसी के भाग्य में दूसरे का भाग्य कहाँ से चिपकाया जा सकता है ?" जयनारायण ने मुझलाकर कहा-"पुरोहितनी, सच प्लो, 'तो इस पाप के सबसे बड़े भागी तुम ही हो। अब दिखायो पा-वह टेवा और पत्री फहाँ है ? तुम्हारी ही बातों में श्राकर मैंने यह विवाह किया था। पुरोहितजी हाय हिलाकर, और शाखें मटकाकर, बोले- "हरे राम ! शास्त्र-वधन पर भी विश्वास ! हम किसकी सु-घड़ी लाकर फिसकी कु-घड़ी में जोद दें? शास्त्र में जो दीखा, सो कहा-भगवान की माया को शास्त्र क्या करे ?" "लव भगवान् की माया में शाखों की नहीं चलनी, तो इस जग्न कुण्डली के पाखण्ड में ही क्या रक्खा है ?" "नहीं रखा है, वो यों ही सनातन से मर्यादा पली माती है? तुम्हारे-ऐसे नास्तिक विचारांश है-जो-ह-सो, तभी तो भग- वान् का तुम पर कोप है।" इतना कहकर पुरोहित यावा ने उपस्थित-मण्डली को लक्ष्य करके कहा-"श्रद्धा और विश्वास के विना भी कही फल मिला है ?" फिर थांख मीचकर और एक बम्बी साँस लेकर कहने लगे-"हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण !! तुम्ही हो।" इस यगुला-भगत को देखकर, और उसकी यात को सुन- पर, अपनारायण की दुखी-आमा मल गई। उसने कहा- कर कहा-"भगवान् का ऐसा कोप इन नास्तिक विचारों से नहीं ..