पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२ अमर अमिलापा "- है, परन्तु तुम्हारे यताये हुये इन अन्धविश्वासों को मानने से दुमा है। मैंने तुम्हारी बातों में पाकर भगवती को नौ वर्ष की उम्र में विधवा बनाया और नारायणी को सात वर्ष की उम्न में । तुम मुझे नास्तिक कहकर कोसते हो पर यदि मैं सचमुच नास्तिक होता, वो थान मेरी दुलारी येटियाँ-जब इनके खेलने-खाने के दिन थे-ऐसी अनायिनी न बनीं। मेरी इन दुधमुंही बेटियों को कोई प्रभागिनी कहता-तो मैं उसकी जीभ खींच लेवा उसका खून पी जाता । पर पान मैं पिशाच याप ही उन्हें अना- थिनी विधवा कह रहा हूँ। अभी पूरे दस मास भी नहीं बीते जब उसकी माता ने सुहाग गाते-गाते माल-कृत्यों के साय, उसे हरी-हरी चुड़िये पहनाई थीं पान उसी ने उन्हें पत्थरों से चूर- चूर कर दिया है । तुम अपने पोयी-पत्रे और उस सुहाग के ममर- पटेको लामो तो सही, मैं उन्हें भी वेटी के सुहाग की तरह भाग लगाकर, डूंक दूं, जिससे और किसी का भाग्य न फूटे ! जब वे भगवान् की माया में दखल देही, नहीं सकते, वो इन मूठे उकोसलों की जरूरत ही क्या है ?" इतना कहकर, वे धरती पर लोटकर रोने लगे। आँसुओं से उनकी दादी भीगार तर होगई। सब चुप । अन्त में एक बड़े-बूढ़े सज्जन ने, उनका हाथ पका- करकहा:-"बावूनी, अब इन बातों से क्या लड़काजी-उठेगा? क्यों जी भारी बरते हो? इसमें तुम्हारा क्या चारा, या जड़की के मान्य में नही लिखा था।"