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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२२२

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२१८ अमर अभिलाषाः वहाँ श्राकर बोली-"मान-मनौवल अभी खत्म नहीं हुई ?" भाई ने रुट होकर कहा-"तुमने रात कुमुद से खाने-पीने को भी नहीं पूछा ? तुम्हारी अक्ल पर पत्यर पदगये दीखते हैं! "पत्यर नहीं थोले । उनसे पूछनेवाले लाख है, अकेली क्या 11 भाई ने कुछ होफर कहा-"वकती क्या है ?" "एक मेरा मुँह रोकने लगे। किस-किल का रोकोगे?" स्त्री तेजी से कहकर चली गई। भाई ने स्त्री को गालियाँ देना प्रारम्भ किया । कुमुद ने सदी होकर कहा--"नाने दो भाई, उसे कुछ मत कहो । अन्चा, अब तुम चलते हो, या में अकेली ना?" भाई ने बहिन के पैर छुकर कहा-"कुमुद, इतनी हठन कर, उस दुधा की तरफ न देख । तू कब की भूखी-प्यासी है, अब यो यिना खाये-पिये मेरे घर से न ना । मैं वास्तव में नमवश' तुझ पर अत्याचार कर वैग कुमुद ने धैर्य से, किन्तु द स्वर में कहा-"माई, हम एक रक और एक हृदय हैं, हमी जब एक-दूसरे को न समझेंगे, तो कौन सममेगा ? तुम हठ न करो, बहिन की समान रक्षा को । मैं जरा भी नाराज़ नहीं, पर प्रारम-प्रतिष्ठा का मैं अवश्य वयान रखंगी। मैं एक प्रतिष्ठित पुरुष की पत्नी, और एक होनहार बच्चे की माता हूँ, यह मैं नहीं भूल सकती । तुम मेरी इच्छा पूर्व करो, वरना मैं अकेली ही अपनी इच्छानुसार करूंगी। .