पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२३

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'उपन्यास more जयनारायण उल् बैठ। उन्होंने तीय स्वर से कहा-"क्या विसा या कि वह सात वर्ष की उम्र में विधवा होगी? कमी नहीं-मैं पापी एफ लदकी को देख चुका था। इसका अमी म्याह ही न करता, तो भाग्य कहाँ जावा?" "करते कैसे नहीं होनहार सय करा लेती है।" पुरोहितजी ने तेज़ स्वर में कहा। "क्या कहा-होनहार सय करा लेती है ? तो फिर हर-एक काम को समझाने-चूमने की लत ही क्या है ! जो होना होगा होकर रहेगा। ईश्वर ने म, समझ, विचार और बुद्धि, सब क्यों दिये है ? पशुओं की तरह माँख मीधफर कुए में कूद पड़ना चाहिये।" जयनारायण एक ही सांस में कह गये। "मनी, या तो किससे कूदा जाता है। परसोच-विचार करने पर भी काम बिगड़े, तो क्या किया बाय?" "पर वैसा होता, वो सन्तोप तो रहता । मैंने तो कर हत्यारे की तरह कन्या के गले में फांसी डाली थी।" "अब नो होगया, वह किसी तरह लौट भी सकता है!" दो-चार भादमी योन उठे। "लौट सकता, तो मैं अपने प्राण देकर भी लौटा लाता । केवल भान ही नहीं, सारे जन्म-भर मुझे यह विच्छू उसता रहेगा। मेरे मरने के बाद मेरी कन्या क्या जाने, फिस घर भीस मांगेगी-किस घर मुलामी करेगी!" इतना कहकर जयनारायण दोनों हाथों से मुंहपकर रोने लगे।