सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

छत्तीसवाँ परिच्छेद साक्षात् नर-पिशाच चाण्डान-स्वरूप गोपाल पाँड़े के हाथ में सुजन जयनारायण की सारी इज्जत-भाबरू चली गई थी। उन्हें पुत्री का पाप कहना पड़ा, और उस पापी की शरण लेनी पड़ी, बदले में देनी पड़ी दक्षिणा । एक पिता का इससे अधिक क्या अपमान हो सकता है। परन्तु वात अपमान-ही तक सीमित न थी, उसे पुत्री को वह भयानक दवा स्वयं खिलानी भी पड़ी। कैसी भयानक बात है ! मनुष्य की आत्मा की यह अद्भुत दुर्बनता है, कि वह अप- राध के बीज से बचता है, पर अपराध में साहसपूर्वक इवता है दवा खाने में भगवती ने बहुत-ही पाना-कानी की, पर जय- नारायण ने उसे खिला-ही दी। उसे खून की उल्लियाँ पाने लगी, और वह बेहोश होगई। उसके मूत्र मार्ग से भी रक्त का