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सैंतीसवाँ परिच्छेद सेशन-जन की कचहरी खचाखच भर रही थी। आदमी-पर- आदमी टूट रहा था। थान राजा साहय के खून का मुकदमा था । मैजिस्ट्रेट की अदालत में कई पेशियाँ लगने पर मामला सेशन-सुपुर्द होकया था। नीचे की अदालत में प्रकाशचन्द्र ने जो धयान दिया था, समाचार-पत्रों की कृपा से जनता पर उसका विनती का-सा असर हुआ था। इसीलिये भान अदालत के कमरे में खवे-से-खवा छिलता था। जन-चैरिस्टर, अमले, सिपाही थपनी- अपनी जगह उपस्थित थे। कचहरी में बाहर-भीतर भारी भीड़ थी। सब के मुख पर एक ही बात थी। ठीक १२ बजे जेल की गाड़ी पाकर कचहरी पर लगी, और उस पर से हथकदियों से जकड़ा हुधा प्रकाशचन्द्र उतरा । उसका चेहरा गम्भीर किन्तु प्रफुल्ल था-नेत्रों में निर्भयता थी, और वह गर्दन ऊँची किये इस प्रकार जारहा या, मानों कोई प्रगल्भ न्याख्याता व्याख्यान देने वेदी पर जारहा हो।