सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपन्यास कोई यहा आदमा नया; एफ निरुट प्राणी या। मूली शान पनाकर यहाँ धाया था। वह शान शीघ्र ही उड़ गई। परन्तु यसन्ती पर उसफा प्रभाव था। अपने पुराने प्रेमी के प्रति उसके मन में तिरस्कार उदय होगया था। वह कुछ दिन तक तो अपनी इन पाप-वार्ता को दिपाती रही, पर शीत ही मंडा-फोड़ होगया। इसी नारफी गोपी ने गोविन्दसहाय को सब भेद बता दिये । गोपिन्दसहाय प्राता, तो प्रायः दोनों में चरव-चन्न चना ही करती। धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों गोविन्दसहाय रुसा और सात हाय होता गया, बसन्ती भी उससे तिनकती गई। उसने गोवि- न्दसहाय से अलग होने का पका इरादा कर लिया। इधर गोपी ने गोविन्दसहाय को वसन्ती के विरुद्ध भड़काया था, उधर वह यसन्ती को भांति-भांति के सन्ज याग़ दिखाने लगा। शीघ्र ही वह लुका-छिपाकर और भी निकृष्ट थादमियों को वहाँ लाने लगा। वसन्ती व गले तक इय चुकी थी। उसका अन्तःज्ञान सो गया था। उसकी शराब की मात्रा भी यहुत बढ़ गई थी, और वह कोकीन भी खाने लगी थी। उसका वह रूप भी सूख गया था। आँखें गढ़े में घुस गई थी, होठ सिकुद गये थे, शरीर मुक गया था, धौर काला होगया था। घेहरे की कान्ति नष्ट होगई थी। इसे यह समझती थी, और भव उसका भार पड़ गया था। वह पाउडर लगाती, भांखों में कानल और होठों में सुनी जगाती। पलों का भी वह काफी हेर-फेर रखती। भय यह मनुष्य-मात्र को मोहने का इरादा रखती