२४६ अमर अमिलापा es जीवन का बादशं भी हम होता है, यह उने कान ताता? वह आदर्श को भूलकर पेट पर टूब गई ! प्रयम बार उसे निस युवक ने फुपलाया था, उसका रस घर धाना-नाना अब भी वारी या। पर घय गोपी-जेमा कोदा उसके मामने प्रागया था। उसने पाप की दूसरी पोयी पदना प्रारम्भ पिया । अब वह इस दशा को पहुंच चुकी यो, कि वह फमी उसके विपरीत सोच ही नहीं सकती थी। वह अरनी हालत में बुश थी । वह यह नहीं मनन्ती थी, कि वह ध्रपना शरीर बेच रही है। वह समन्नी यो, कि मैं शिकार मैंगनी हूँ। मनुष्यों को विजय करती हूँ। वही पतित गोपी और उसके साथ एक मुख्यमान युवक वहाँ बैठे थे । शगय का प्याला और बोतल बीच में धी थी। युवक ने शराब प्याले में डेलपन कहा-"पीनिय।" यसन्नी पीठी तो थी, पर बहुत कम । भान उसकी मात्रा बढ़ गई थी। उसने कहा-"वी नहीं, मैं इतना ज्यादा शौक नहीं रखती; माप पोजिये।" पर युवक पूरा इण्ट था। उसने दो-चार प्याले उसे और पिला दिये । बसन्ती धनगन सकवाद कर रही थी। उसे प्रापे का शान न था । गुनहगार गोपी मसलय गाँठ रहा था। बसन्ती ने अनायास ही अपना शरीर उस अपवित्र पुरक को रे दिया। फिर वो सिलसिला जारी हो रहा। यह युषा वास्तव में 1
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२५२
दिखावट