२५८ अमर श्रमिलापा , मालती कुछ भी न सोच सकी, कि क्या करे। इन पर विश्वास फरे, या मदी-यनारस नाय, या नहीं। पद विमूद की भाँति उनके पीछे-पीछे स्टेशन तफ चली गई। उस व्यक्ति ने दो टिकिट खरीदकर जनाने दिव्ये में उन्हें या दिवा, मालदी के खाने-पीने की भी व्यपस्था पर दी। गादी चलने पर देवीजी की लच्छेदार यातों से मालती कुछ वेफिक्र होकर सो गई । जय यह टटी, यनारस निफट आ गया या। मालती माता-पिता से मिलने को उत्नुक हो रही थी। वह जयदी-गदी गाड़ी से उतरी। देवीनी ने घोडा-गादी किराये की, और वह धनधड़ाती नगर की घोर चल दी। देवीजी ने रास्ते में फहा-"यच्या तो यह है कि हम पहले घर चले चलें । यहाँ तुम्हें चोदफर फिर मैं तुम्हारे पिता की दून। न जाने कहाँ उतरे हैं ! तुम कहाँ-कहाँ मटकती फिरोगी? मालती ने कहा-"हन क्या है ? मैं साथ ही रहूंगी।" देवीजी ने कहा-"येटी, तुम तो समझती नहीं, अभी तुम्हें इन यातों का ज्ञान ही नहीं है। सिर उठाया, पौर चलदीं। इसी से तो वह मुसीयत सिर पर ली। घय मेग कहना मानो। पहले घर चलें, पीले मैं उन लोगों को दे॒दकर ले माऊँगी । मुझे भाज-ही लौटना भी है। भाई की शादी में मैं बिना गये नहीं रह सकती।" मालती कृष विरोध न कर सकी। पर उसका कलेजा धड़- धड़ाने लगा । देवीजी के सकेत पर गाड़ी कुछ देर तक गली में
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