उपन्यास २५९ चलकर एक बड़े मकान के धागे रुक गई। मालती ने उतरकार देखा, मफान पर साइनबोर्ड लगा था -'विधवा-आश्रम'। उसने हिचकिचाते हुए देवीजी से पूछा-"क्या आप यहीं रहती देवी जी ने उपेक्षा से 'हाँ' कहा-और भीतर चनदी।निरुपाय मालती मी भीतर चली गई। भीतर दालान में तीन-चार थादमी एक टी-सी मेज को आगे धरे बैठे थे। एफ कोई २५-२६ वर्ष का नवयुवक था। वह याव-यात पर मुस्कराफर नवाव देता था। दो-तीन थादमी और खढ़े थे। वे पूरे गुण्डे दीख पड़ते थे। इन्हें देखते ही सब की यौवें खिल गई। सब ने एक स्वर से पूषा-"इस बार क्या माल लाई हो" देवीनी ज़रा हसी, परन्तु चुप रहने का सकेस करके कहा- "अपर का मेरा कमरा खुलवादो, और एक तुम शङ्कर, जरा दौद नायो, मणिकर्णिका घाट पर कहीं यशोदानन्दननी वकील हरे हैं, उन्हें साय-ही ले पायो । कहना, मालती मिल गई है, और वह आश्रम में सुरक्षित है।" शर ने एफ खास प्रकार का संकेत पाया, और दिया भी। फिर वह 'बहुत अच्छा' कहकर चल पड़ा, देवीनी मालती को लेकर ऊपर चढ़ पाई। कमरे में जाकर देखा खासा सना है। वह एक कुसी पर बैठकर शश, उद्वेग श्री धरा- इट से विलमिलाने लगी। देवीजी यह कहकर, कि 'मैं नित्यकर्म से निपट लँ'-यहाँ से खिसक गई। यह एकाएक मालती के
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