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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२६८

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२६२ अमर अभिलाषा "मैं नन्द-से-जल्द यहाँ से चली जाना चाहती हूँ।" "यहाँ उन्हें कुछ कर हुमा क्या ?" "कष्ट कुछ नहीं, पर मेरी यहाँ एक मिनिटभी रहने की इच्छा नहीं है।" "विना अधिष्ठाताजी के आये तो तुम ना सकतीं नहीं।" "अधिष्ठाता कौन?" "वही, जो तुम्हें यहाँ मिले थे, जिन्होंने तुम्हें यहाँ मेना है।" "क्या वे यहाँ के अधिष्ठाता है?" "और तुम ?" "मैं सुपरिण्टेण्डेण्ट हूँ।" "तुम" मालती की आँखों से भाग निकलने लगी। उसने कहा- "तब तुम लोगों ने धोखा देकर मुझे यहाँ ना डाला है।" "वहाँ क्या तुम अपने महल में बैठी थीं? इतनी लाल-पीनी क्यों होती हो?" मालती ने क्रोध से काँपते हुए कहा-"सच कहो, कि क्या मेरे पिताजी के यहाँ आने की बात सत्य है ?" "मैं क्या जानू ? अधिष्ठातानी नानें; यहाँ तो वे मिले नहीं।" "समझ गई, मैं ठगों के फन्दे में फंस गई हूँ। परन्तु और इसी में है, कि मुझे तुम अभी चली जाने दो।"