उपन्यास २६७ की मार, मिडकी, अपमान सहे थे। पर थय उसने विचारा, कि धातिर इन लोगों को यह सब कहने का अधिकार हो क्या है ? सी-पुरुप व्याह करके रहते हैं, तब तो पातक नहीं लगता। हमारा मी व्याह मानो मन-ही-मन में होगया है। और यदि यह पाप ही है, तो उसे में हो तो भोगूगी, ये क्यों गांव-चाव करके सिर साये जाते हैं? इन्हीं सत्र विचारों में भगवती अनमनी-सी पैठी थी। तभी उसकी माँ ने दुःख और फ्रोध में यह वचन कहे। भगवती यहुत सह चुकी थी, घय न सह सकी। उसने क्रोध से सिहनी की तरह गर्नकर कहा-"क्या है? क्या मेरे पीचे वक-यक लगाई है ? नीते-जीते तेरे बाल सफ़ेद होगये हैं, मरने का नाम नहीं लेती । मेरी ज़िन्दगी तुम लोगों को ऐसी भारी पड़ गई है, कि दिन-रात मुझे कोसते रहते हो । मरो तुम, सय मर जायो; मेरी जूती मरेगी।" इतना कहकर यह कोष से. थर-थर काँपने लगी। लो कभी न हुधा था, उसे देखकर भगवती की माता प्रवाक रह गई । उसने क्रोध से अधीर होकर कहा-"तेरी यह जवान ! मेरे सामने !" थय भगवती ने अपनी पूरी ऊँचाई में वनकर खड़ी होकर कहा-"हाँ-हाँ, तेरे ही सामने ! तू है कौन?" "तु कभी मेरी कोस में नहीं आई थी? कमी तेरे लिये मैंने कुछ किया नहीं था? क्यों-तू अपनी माँ को भव नहीं पह- चानती? दायन !"
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